भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी ने आज (13 मई, 2013) असम के गुवाहाटी में इंदिरा गोस्वामी (श्रीमती मामोनी रायसम गोस्वामी) को असम रत्न पुरस्कार (मरणोपरांत) तथा श्रीमती शर्मिला टैगोर को श्रीमंत् शंकरदेव पुरस्कार प्रदान किए।
इस अवसर पर बोलते हुए, राष्ट्रपति ने कहा कि उन्हें इस बात की खुशी है कि असम की उनकी पहली यात्रा, भारत की दो असाधारण महिलाओं को पुरस्कार प्रदान करने के लिए हो रही है। दोनों ही ऐसे सामाजिक नेतृत्व हैं, जिन्होंने महिलाओं के विकास और सशक्तीकरण के लिए योगदान किया है।
राष्ट्रपति ने श्रीमती शर्मिला टैगोर को भारत के सांस्कृतिक जीवन में समृद्ध योगदान के लिए बधाई दी। उन्होंने कहा कि यूनिसेफ के सद्भावना दूत तथा भारतीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के अध्यक्ष के तौर पर श्रीमती शर्मिला टैगोर ने समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए प्रयासों को प्रोत्साहन देने के लिए अपने प्रभाव का उपयोग किया।
राष्ट्रपति ने स्वर्गीय श्रीमती इन्दिरा गोस्वामी को मरणोपरांत असम रत्न सम्मान प्रदान करके उनके योगदान को असम सरकार द्वारा मान्यता प्रदान करने का भी स्वागत किया। उन्होंने कहा कि वह एक सुप्रसिद्ध कहानीकार तथा सफल उपन्यासकार थी, जिन्होंने असम के इतिहास की बड़ी संवेदनशील अवधि में साहसपूर्वक सामाजिक बदलाव की वकालत की थी। उन्हें खासतौर से असम में सशस्त्र उग्रवादियों तथा भारत सरकार के बीच मध्यस्थ के तौर पर उनकी भूमिका के लिए याद रखा जाएगा। उनके सभी कार्यों में ‘मामोनी’ उन्हें इसी नाम से जाना जाता था, ने महिलाओं तथा समाज में वंचितों तथा शोषितों को केंद्र में रखा था। इन समस्याओं के प्रति जागरूकता पैदा करके वे परिवर्तन के बीज बोने में सफल रही।
राष्ट्रपति ने कहा कि हम कठिन दौर में रह रहे है। दिल्ली में बलात्कार की हाल ही की घटना ने राष्ट्र की अंतरात्मा को झकझोर दिया है। हमें इस पर चिंतन करना होगा कि हम कहां है तथा किधर जा रहे हैं। हमें अपनी नैतिकता की दिशा का फिर से निर्धारण करना होगा। महिलाएं शक्ति, शांति, प्रेम, मानवीयता तथा दैवत्व का प्रतीक हैं।
राष्ट्रपति ने श्रीमंत शंकरदेव पुरस्कार शुरू करने के लिए असम सरकार को बधाई दी। उन्होंने कहा कि यह पुरस्कार पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी के दौरान, असम के संत, विद्वान तथा समाज सुधारक स्वामी श्रीमंत् शंकरदेव की शिक्षाओं का प्रचार-प्रसार करेंगा। उनके नव-वैष्णव आंदोलन ने जाति बंधनों को तोड़ा तथा एक ऐसे समतावादी सिविल समाज की स्थापना की कोशिश की जिसमें भाईचारे, समानता, मानवीयता तथा लोकतंत्र के मूल्यों को माना जाता हो। शंकर देव का मानना था कि, ‘‘इसलिए, सभी को और हर वस्तु को, ऐसा मानो जैसे वह स्वयं ईश्वर हो। ब्राह्मण अथवा चांडाल की जाति जानने की कोशिश मत करो।’’ हमें शंकरदेव के उपदेशों से सीख लेनी चाहिए। अब समय आ गया है कि मानवता तथा मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है, के उनके सिद्धांतों का पुन: प्रसार किया जाए।
यह विज्ञप्ति 1905 बजे जारी की गई