भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी ने आज (19 जनवरी, 2015) राष्ट्रीय ज्ञान नेटवर्क का प्रयोग करते हुए राष्ट्रपति भवन से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से केंद्रीय विश्वविद्यालयों, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थानों तथा अन्य संस्थानों को ‘संसद तथा नीति निर्माण’ पर संबोधित किया।
राष्ट्रपति ने (1) संसद में व्यवधानों को रोकने के उपाय, (2) जब सत्ताधारी दल राज्य सभा में बहुमत में न हो तो समाधान, (3) कानून निर्माण का अध्यादेश का रास्ता, तथा (4) बजट निर्माण की प्रक्रिया को सहभागितापूर्ण बनाना,जैसे कुछ प्रश्नों के भी उत्तर दिए।
इस संबोधन का तथा प्रश्नोत्तर सत्र का वेबकॉस्ट http://webcast.gov.in/president/ पर उपलब्ध है।
विद्यार्थियों और संकाय सदस्यों को संबोधित करते हुए, राष्ट्रपति ने कहा कि 2014 का वर्ष भारत की राजव्यवस्था के लिए एक महत्त्वपूर्ण वर्ष था। तीन दशकों के बाद, भारतीय मतदाताओं ने एक स्थिर सरकार बनाने के लिए एक अकेले दल को बहुमत देने का निर्णय लिया। 16वीं लोकसभा के चुनावों के परिणामों से राजनीतिक स्थिरता आई है तथा चुनी गई सरकार को नीतियों के निर्माण में तथा उन नीतियों के कार्यान्वयन के लिए कानून बनाने में अपने बहुमत का प्रयोग करके अपनी जनता से अपने वायदों को पूरा करने का अधिदेश प्राप्त हुआ है।
राष्ट्रपति ने कहा कि किसी भी लोकतंत्र में संसद के तीन अत्यावश्यक कार्य होते हैं—प्रतिनिधित्व, कानून निर्माण तथा निगरानी। संसद जनता की इच्छा और अकांक्षा का प्रतिनिधित्व करती है। यह ऐसा मंच है जहां परिचर्चा तथा विचार-विमर्श के द्वारा इस ‘इच्छा’और आकांक्षा की प्राथमिकता तय करके उसे कानूनों, नीतियों और ठोस कार्य योजनाओं में बदलना होता है। जब ऐसा नहीं होता तब लोकतंत्र के संचालन में किसी महत्त्वपूर्ण तत्त्व में बाधा आती है तथा उसका नुकसान जनता को होता है।
राष्ट्रपति ने कहा कि हमारे संसदीय लोकतंत्र में कानून का निर्माण अथवा विधायन संसद तथा विधान सभाओं का एक एकांतिक कार्य है। विधेयक पारित करने का कार्य कानून निर्माण का आसान हिस्सा होता है। इसका कठिन हिस्सा इस कानून के लिए विभिन्न समूहों के हितों के बीच तालमेल के लिए बातचीत करना होता है। कोई विधायिका तभी प्रभावी होती है जब वह स्टेकधारकों के बीच मतभेदों का समाधान करने में सफल हो तथा कानून के निर्माण तथा उसको लागू किए जाने के लिए एकमत कायम करने में सफल हो। जब संसद कानून निर्माण की अपनी भूमिका का पूरा करने में असफल रहती है अथवा बिना चर्चा किए कानून बनाती है तो यह जनता द्वारा उसमें व्यक्त किए गए विश्वास को तोड़ती है। यह न तो लोकतंत्र के लिए अच्छा है और न ही उन कानूनों के द्वारा शुरू की गई नीतियों के लिए अच्छा है।
राष्ट्रपति ने कहा कि नीतियों द्वारा समाज के विभिन्न स्टेकधारकों की चिंताओं का समग्र राष्ट्रीय हित में समाधान किया जाना होता है। भारत के संदर्भ में नीति निर्माण का मार्गदर्शन संविधान द्वारा होता है। नीतियों के निर्माण में सहायता के उपरांत संसद यह भी सुनिश्चित करती है कि जिन नीतियों और कार्यक्रमों को तय करने में उसने सहयोग किया है वह परिकल्पना के अनुसार कार्यान्वित हों। यह इस बात पर भी नजर रखती है कि इन कार्यक्रमों का कार्यान्वयन कार्यपालिका द्वारा कानून सम्मत, कारगर ढंग से तथा उसी उद्देश्य से हो जिसके लिए उन्हें बनाया गया था। संसद की यह निगरानी अन्य दो कार्यों में भी आती है। संसद के पास धन और वित्त पर पूर्ण नियंत्रण की एकांतिक शक्ति होती है। प्रत्येक कर तथा प्राप्ति तथा भारत की समेकित निधि में तथा उसमें से कोई भी व्यय लोक सभा अथवा विधान सभा के अनुमोदन के उपरांत ही हो सकता है। कार्यपालिका पर संसद की एक दूसरी महत्त्वपूर्ण निगरानी शक्ति यह है कि सर्वोच्च कार्यपालक प्राधिकारी अर्थात प्रधानमंत्री तथा मंत्रिमंडल तभी तक कार्य कर सकते हैं जब तक उन्हें जनता द्वारा चुने गए सदन का विश्वास हासिल होता है तथा उन्हें अविश्वास प्रस्ताव के द्वारा सदन के साधारण बहुमत से हटाया जा सकता है।
राष्ट्रपति ने कहा कि नीतियों की व्याख्या करने, उसके कार्यान्वयन तथा उस पर नजर रखने में संसद की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। इसलिए यह संसद सदस्यों की जिम्मेदारी है कि सदन में किए जा रहे सभी कामकाज पर चर्चा करें तथा समुचित छानबीन करें। दुर्भाग्यवश, संसद में सदस्यों द्वारा लगाए जा रहे समय में धीरे-धीरे कमी आती जा रही है। जहां पहली तीन लोक सभाओं की क्रमश: 677, 581 तथा 578 बैठकें हुई थीं वहीं 13वीं, 14वीं तथा 15वीं लोक सभाओं की क्रमश: केवल 356, 332 तथा 357बैठकें हुई। हम सभी को यह उम्मीद करनी चाहिए कि 16वीं लोक सभा में यह रुझान बदलेगा।
राष्ट्रपति ने कहा कि संसदीय हस्तक्षेप के एक साधन के रूप में व्यवधान करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। यद्यपि असहमति एक मान्य संसदीय अभिव्यक्ति है परतु व्यवधानों से समय और संसाधनों की बर्बादी होती है तथा नीति निर्माण ठप हो जाता है। संसदीय लोकतंत्र का मूल सिद्धांत यह है कि बहुमत को शासन करने के लिए अधिदेश प्राप्त है तथा विपक्ष को विरोध करने, उजागर करने तथा पर्याप्त संख्या होने पर उसे अपदस्थ करने का अधिकार हासिल है। परंतु किसी भी हालत में कार्यवाही में व्यवधान नहीं होना चाहिए। शोरशराबा करने वाले अल्पमत को धैर्यवान बहुमत की आवाज को दबाने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
राष्ट्रपति ने कहा कि कुछ तात्कालिकताओं के समाधान के लिए तथा बाध्यकारी परिस्थितियों में, संविधान के निर्माताओं ने यह जरूरी समझा था कि वह कार्यपालिका को उस समय के लिए अध्यादेशों के प्रख्यापन के रूप में कानून निर्माण की सीमित शक्ति प्रदान करे जब विधायिका का सत्र न चल रहा हो और परिस्थितियां तत्काल कानून निर्माण के लिए औचित्यपूर्ण हों। संविधान निर्माताओं ने यह भी जरूरी समझा कि वह संविधान में इस तरह के अध्यादेशों की एक निश्चित समय सीमा के अंदर विधायिका द्वारा प्रतिस्थापन की व्यवस्था द्वारा इस असाधारण कानूनी शक्ति पर कुछ प्रतिबंध लगाए। अनुच्छेद 123(2) में यह प्रावधान है कि अध्यादेश को दोनों सदनों की फिर से बैठक होने के छह सप्ताह से अनधिक के अंदर कानून से प्रतिस्थापित करना होगा। अनुच्छेद 85 में यह भी प्रावधान है कि किसी सत्र की आखिरी बैठक तथा अगले सत्र की पहली बैठक के बीच छह माह की अवधि न हो।
राष्ट्रपति ने कहा कि भारत की विविधता तथा इसकी समस्याओं का परिमाण यह अपेक्षा करता है कि संसद जन नीतियों पर एकमत तैयार करने का अधिक कारगर मंच तथा हमारे लोकतांत्रिक विचारों का वाहक बने। संसद में कार्यवाहियां सहयोग, सौहार्द तथा उद्देश्यपूर्ण भावना के साथ संचालित होनी चाहिए। बहसों की विषयवस्तु तथा स्तर उच्च कोटि का होनी चाहिए। सदन में अनुशासन तथा मर्यादा बनाए रखने तथा शिष्टाचार और शालीनता का पालन करना जरूरी है।
राष्ट्रपति ने संसद को आगाह किया कि वह कानून निर्माण तथा नीति नर्माण करने का अपने दायित्व का जन आंदोलनों तथा सड़क पर विरोधों के आगे समर्पण न करे क्योंकि हो सकता है कि यह सदैव हमारी समस्याओं का सुविचारित समाधान न हो। जनता का विश्वास और भरोसा बनाए रखने के लिए संसद को ऐसी नीतियों के निर्माण के लिए कानून बनाने चाहिए जो जनता की चिंताओं और आकांक्षाओं का समाधान करें।
यह विज्ञप्ति 1550 बजे जारी की गई