भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी ने आज (27 जुलाई, 2015) मैसूर में मैसूर विश्वविद्यालय के शताब्दी समारोह का उद्घाटन किया।
इस अवसर पर, राष्ट्रपति ने उल्लेख किया कि मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना 1916 में दीवान सर एम विश्वेश्वरैया के सुयोग्य सहयोग से ‘राजर्षि’ नालवाड़ी कृष्णराजा वडियार के संरक्षण में की गई थी। इसका भविष्य प्रथम कुलपति श्री एम.वी. नंजुनदैया, डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन, डॉ. ब्रजेंद्र नाथ सील, डॉ. सी.आर. रेड्डी, प्रो. थॉमस डेनहाम, प्रो. ए.आर. वाडिया, प्रो. एम. हिरियन्ना, डॉ. के.वी. पुटप्पा (कुवेंपु) तथा डॉ. डी. जवारे गोड़ा जैसे निष्ठावान व्यक्तियों द्वारा संवारा गया है। बाद के अन्य लोगों ने इस समृद्ध विरासत को आगे बढ़ाते हुए तथा उद्देश्यपरक कार्य के साथ अग्रसर होते हुए इस संस्थान का ध्वज ऊंचा उठाए रखा।
राष्ट्रपति ने कहा कि भारत अपने 1.25 बिलियन लोगों में से 35 वर्ष की आयु से कम के दो तिहाई लोगों के साथ विश्व का एक अग्रणी राष्ट्र बन सकता है। अपने ऊर्जावान युवाओं की क्षमता के उपयोग के लिए, एक विश्वस्तरीय शैक्षिक प्रणाली आवश्यक है। यद्यपि भारत की विश्व में दूसरी सबसे विशाल उच्च शिक्षा प्रणाली है, परंतु20 प्रतिशत की प्रवेश दर युवाओं की भावी संभावनाओं को सुधारने अथवा ज्ञान प्रधान विश्व में अवसरों का लाभ उठाने के लिए पर्याप्त नहीं है। हमारे देश में श्रेष्ठ गुणवत्तापूर्ण संस्थानों के अभाव में अधिकांश प्रतिभावान छात्र उच्च अध्ययन के लिए विदेश चले जाते हैं।
राष्ट्रपति ने कहा कि भारतीय विश्वविद्यालयों को विद्यार्थियों में वैज्ञानिक प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए। एक बड़ा कदम विद्यार्थियों तथा बुनियादी नवान्वेषकों के विचारों को साकार रूप देना हो सकता है। अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालयों में नवान्वेषण क्लबों की स्थापना की पहल का अनुकरण अन्य भी कर सकते हैं। यह एक ऐसे मंच के रूप में कार्य करेगा जहां नवीन विचारों को प्रोत्साहन मिलेगा और नए उत्पादों के विकास के लिए नवान्वेषकों को प्रोत्साहित किया जाएगा। उन्होंने मैसूर विश्वविद्यालय से इस क्षेत्र में नवान्वेषण अभियान का नेतृत्व करने का आग्रह किया।
यह विज्ञप्ति 1650 बजे जारी की गई।