भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी आज (28 नवम्बर 2014) कलकत्ता विश्वविद्यालय के वार्षिक दीक्षांत समारोह के मुख्य अतिथि थे। इस अवसर पर राष्ट्रपति जी को, जो इस विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थी हैं, डी लिट/लॉ की उपाधि (मानद) तथा सर आशुतोष मुखर्जी की 150वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में एक वर्ष पूर्व स्थापित आशुतोष मुखर्जी स्मृति पदक से भी नवाजा गया।
राष्ट्रपति जी ने इस अवसर पर बोलते हुए,कलकत्ता विश्वविद्यालय के साथ अपने संबंधों को याद किया। उन्होंने कहा कि सूरी विद्यापीठ कॉलेज, जहां उन्होंने शिक्षा प्राप्त की, उस समय इस विश्वविद्यालय से संबद्ध था। उन्होंने विधि विभाग से कानून की उपाधि तथा बाह्य विद्यार्थी के रूप में आधुनिक इतिहास तथा राजनीति विज्ञान में दो स्नातकोत्तर उपाधियों के लिए भी अध्ययन किया था। उनका सौभाग्य था कि उन्हें इस प्रतिष्ठित संस्थान के साथ उस समय जुड़ने का मौका मिला जब एक नवोदित, स्वतंत्र भारत राष्ट्रीय विकास की दिशा में तेजी से प्रगति कर रहा था। राष्ट्रपति के रूप में पद ग्रहण करने के बाद उन्हें बहुत से विश्वविद्यालयों से डॉक्टरेट की मानद उपाधियों के प्रस्ताव प्राप्त हुए और उन्होंने सभी से असमर्थता जताई। उनका मानना था कि भारत के राष्ट्रपति के रूप में उन्हें इस तरह के प्रस्ताव स्वीकार नहीं करने चाहिएं। परंतु जब यह प्रस्ताव उनकी अपनी मातृसंस्था से आया तो उनकी भावुकता तथा भावनाएं उनपर हावी हो गईं। यद्यपि हो सकता है कि वह इस सम्मान के योग्य न हों, परंतु उन्हें लगा कि उन्हें इसे स्वीकार कर लेना चाहिए क्योंकि यह उनकी मातृसंस्था के प्रेम और स्नेह का प्रतीक है।
स्वतंत्रता आंदोलन में कलकत्ता विश्वविद्यालय की भूमिका का उल्लेख करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि औपनिवेशिक शासकों ने इस संस्थान को भारत के कुलीन वर्ग तथा उच्च वर्ग की शैक्षणिक जरूरतों को पूरा करने के लिए स्थापित किया था। परंतु कलकत्ता विश्वविद्यालय धीरे-धीरे क्रांतिकारी विचारों और राष्ट्रवादी कार्यों का मार्गदर्शक बन गया। उन्होंने, जनवरी 1957 में इस विश्वविद्यालय के शताब्दि समारोहों के अवसर पर डॉ राजेन्द्र प्रसाद के व्याख्यान का उद्धरण देते हुए कहा, ‘कलकत्ता विश्वविद्यालय इसके पूर्व छात्रों के माध्यम से भारतीय पुनर्जागरण तथा राष्ट्रवाद के जागरण से जुड़ा हुआ था... मैं कह सकता हूं कि इस राष्ट्रवाद का स्रोत मुख्यत: इस विश्वविद्यालय के छात्रों द्वारा खोला गया था।’
राष्ट्रपति ने कहा कि शिक्षा को मानवीय अस्तित्व के दो मूलभूत उद्देश्यों में सहयोगी होना चाहिए: ज्ञान का प्रसार तथा चरित्र का निर्माण। उच्च शिक्षा को हमारे उन भावी पथप्रदर्शकों को तैयार करने में विशिष्ट भूमिका निभानी है जो देश को वैश्विक शक्ति में ऊंचे दर्जे पर ले जाने के लिए चिकित्सा से इंजीनियरी, शिक्षण,प्रशासन, व्यवसाय, राजनीति तथा समाज सेवा जैसे विभिन्न क्षेत्रों में कार्य करेंगे। इसलिए, यह हमारे उच्च अध्ययन केन्द्रों का दायित्व है कि वे नई पीढ़ी में देशभक्ति, ईमानदारी, उत्तरदायित्व,अनुशासन, बहुलवाद के प्रति सम्मान, महिलाओं का सम्मान तथा करुणा के बुनियादी मूल्यों का समावेश करते हुए उनको तैयार करें।
राष्ट्रपति ने कहा कि यह विडंबना है कि हमारी उच्च शिक्षा प्रणाली को, जो विश्वस्तरीय विद्वानों को पैदा करने में सक्षम है, इन विद्यार्थियों को विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए छोड़ना पड़ रहा है। इस परिहार्य रुझान को रोकने के लिए गंभीर चिंतन जरूरी है। हमारे यहां मेधावी विद्यार्थियों और प्रेरित शिक्षकों की कोई कमी नहीं है। इसका प्रमाण यह है कि भारतीय विश्वविद्यालयों के स्नातकों ने बाद में नोबेल पुरस्कार प्राप्त किए।
यह विज्ञप्ति1700 बजे जारी की गई।