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अखिल भारतीय लोकायुक्त सम्मेलन के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

नई दिल्ली : 02.11.2012



मुझे ग्यारहवें अखिल भारतीय लोकायुक्त सम्मेलन के उद्घाटन समारोह में भाग लेकर प्रसन्नता हो रही है। इस समारोह में विभिन्न राज्यों के लोकायुक्तों द्वारा मिल-बैठकर लोकायुक्तों की प्रभावशीलता को बढ़ाने के तौर-तरीकों पर चर्चा की जाएगी। ये अखिल भारतीय लोकायुक्त सम्मेलन विभिन्न भागीदारों को एक स्थान पर इकट्ठा करते हैं ताकि चुनौतियों और सर्वोत्तम तरीकों पर विचारों का अदान-प्रदान किया जा सके। मुझे विश्वास है कि इतने अधिक संख्या में अनुभवी भागीदारों से विचार-विमर्श के द्वारा लोकायुक्तों को सुदृढ़ तथा अधिक प्रभावी बनाने के ठोस सुझाव और पहल उभर कर सामने आएंगे।

पिछले कुछ समय से यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता पर चिंता जाहिर की जा रही है कि सत्ता के गलियारे भ्रष्टाचार या भाई-भतीजावाद से बेअसर रहें और उनके अभिष्ट उद्दश्यों के लिए संसाधनों व धनराशि का इष्टतम उपयोग हो। इसलिए यह राष्ट्रीय सम्मेलन सामयिक है। लोकतंत्र के सफलता से संचालन के लिए लोगों को यह विश्वास होना जरूरी है कि सरकारी नीतियां ईमानदारी, पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ तैयार व कार्यान्वित की जाती हैं।

जैसा कि आप सभी जानते हैं, लोकायुक्त अथवा ओम्बड्समैन की संकल्पना सबसे पहले प्रशासन पर नजर रखने तथा ‘आम जनता’ के रक्षक के रूप में स्कैंडनेवियाई देशों में हुई थी। निर्णयों के कार्यान्वयन की न्यूनतम शक्ति होने के बावजूद इन देशों में लोकायुक्तों ने प्रशासन में मानवीयता के समावेश में बहुत उपयोगी भूमिका निभाई।

भारत में, प्रसिद्ध अधिवक्ता श्री एम.सी. सीतलवाड़ ने 1962 में आयोजित अखिल भारतीय अधिवक्ता सम्मेलन में अपने भाषण में लोकायुक्त के समान एक संस्था की स्थापना का सुझाव दिया था। प्रथम प्रशासनिक सुधार आयोग ने 1966 में इस विचार की गहन जांच पड़ताल की और केन्द्र में लोकपाल और राज्यों में लोकायुक्तों की स्थापना की संस्तुति करते हुए, इस आयोग ने नागरिकों की शिकायतों के समाधान, भ्रष्टाचार पर नियंत्रण तथा नागरिकों के असंतोष को दूर करने के माध्यम के रूप में ओम्बड्समैन जैसी संस्थाओं की स्थापना की सिफारिश की।

धीरे-धीरे भारत के तीव्र विकास के साथ सरकारी व्यय की मात्रा लागतार बढ़ती गई है। उदाहरण के लिए, तत्कालीन वित्त मंत्री षण्मुखम चेट्टी द्वारा पेश किया गया स्वतंत्र भारत का पहला बजट 293 करोड़ रुपए का था और मेरे द्वारा इस वर्ष मार्च में पेश किया गया पिछला बजट लगभग 12 लाख करोड़ रुपए का था। प्रथम पंचवर्षीय योजना का परिव्यय 2000 करोड़ रुपए था जबकि 11वीं योजना अवधि के दौरान सार्वजनिक निवेश तकरीबन 11 लाख करोड़ रुपए था।

राजनीतिक अर्थव्यवस्था का आकार और व्यापकता बढ़ने के साथ-साथ संविधान के अंतर्गत परिकल्पित और स्थापित संस्थाओं को अलग तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सतत् विकास सुनिश्चित करने, गरीबी मिटाने, जीवन स्तर उठाने, औद्योगिकीकरण को बढ़वा देने, नौकरियां देने इत्यादि के लिए कार्यपालिका को शीघ्र निर्णय करने की जरूरत होती है, जिसको हमारे संविधान ने शासन का दायित्व सौंपा है। यदि कार्यपालिका को परिणाम प्रदान करने हैं और कुशल शासन दर्शाना है तो उसके पर्याप्त वित्तीय शक्तियां होनी चाहिएं। इसी के साथ, ऐसी वित्तीय शक्तियों के प्रावधान और शासन में प्रशासनिक विवेक के प्रयोग से भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के अवसर पैदा होते हैं। जनता के लोग भ्रष्टाचार की जांच करने और शासन में ईमानदारी के लिए एक तंत्र की आवश्यकता को अनुभव करते हुए, देश भर में लोकायुक्त स्थापित किए गए हैं और केन्द्र में लोकपाल पर विचार किया जा रहा है।

मैं समझता हूं कि वर्तमान में राज्य सरकारों द्वारा 19 लोकायुक्तों की स्थापना की गई है। मैं शेष राज्यों से भी आग्रह करना चाहूंगा कि वे शीघ्र ही ऐसी संस्थाएं स्थापित करने पर विचार करें और देश के सफल लोकायुक्तों के सर्वोत्तम कार्यों से सीख हासिल करें।

जिन राज्यों में लोकायुक्त स्थापित किए गए हैं, वहां उनकी स्थापना को संचालित करने वाले विभिन्न अधिनियम है तथा लोकायुक्तों की पात्रता, इसके कार्यक्षेत्र, कार्य प्रणालियां, शक्तियां और अवसंरचना संबंधी प्रावधानों में बहुत अन्तर है। विभिन्न राज्यों के लोकायुक्तों के कामकाज में कोई एकरूपता नहीं है और उनकी प्रभावशीलता भी राज्य दर राज्य अलग-अलग है। लोकायुक्तों को केवल सिफारिशी शक्तियां हैं और अपने निर्णयों को कार्यान्वित करने की शक्ति नहीं है उनके अधिकार क्षेत्र की सीमा क्या होनी चाहिए, क्या उनके दायरे में सरकारी कर्मचारी होने चाहिए या केवल जनता के लोग, क्या उनके पास अपनी स्वतंत्र जांच एजेंसियां होनी चाहिए या उन्हें मौजूद सरकारी एजेंसियों को इस्तेमाल करना चाहिए, आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनसे समाज में बहुत बहस हो रही है। मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन में बारीकी से इन मुद्दों पर विचार-विमर्श किया जाएगा।

द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने ‘शासन में नैतिकता’ पर अपनी चौथी रिपोर्ट में सभी राज्यों में लोकायुक्त ढांचे, उसकी शक्ति और कामकाज के सामान्य सिद्धांतों में एकरूपता की सिफारिश की थी। न्यायमूर्ति मनमोहन सरीन ने अपनी टिप्पणी में राज्य सरकार के संदर्भ में एक मॉडल मुख्य लोकायुक्त और उपलोकायुक्त बिल तैयार करने का उल्लेख किया है। मैं लोकायुक्तों से आग्रह करता हूं कि वे इस मॉडल बिल पर विधि और न्याय मंत्रालय के साथ विचार-विमर्श करें और देखें कि मामले को कैसे आगे बढ़ाया जा सकता है।

यह जरूरी है कि वर्तमान में पदासीन लोकायुक्त सच्चाई का पता लगाने के लिए निष्पक्ष व स्वतंत्र जांच करके लोगों का विश्वास बढ़ाएं। राज्य सरकारों को उनको दिए गए वैधानिक अधिदेश के कार्यान्वयन में लोकायुक्तों का सहयोग देना चाहिए और उन्हें झंझट या शासन में हस्तक्षेप के तौर पर नहीं देखना चाहिए। लोकायुक्तों को पर्याप्त वित्तीय और प्रशासनिक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिए।

इसी के साथ, लोकायुक्तों को ध्यान रखना चाहिए कि उनका कर्तव्य केवल सरकारी अधिकारियों के दोषी होने पर उन्हें आरोपित करने का ही नहीं बल्कि उनके आचरण में त्रुटि न पाए जाने पर उनका बचाव करना और पूरी ताकत व गंभीरता के साथ उनके बारे में गलत धारणाओं को ठीक करना भी है। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि भ्रष्टाचार की रोकथाम के नाम पर बदनाम करने या प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने के लिए निंदा अभियान न चलाए जाएं। सम्मान को नुकसान पहुंचाने वाले मिथ्या आरोप भी भ्रष्टाचार जितने ही बुरे हैं। लोकायुक्त संस्था सुशासन का सहयोगी है, विकास में बाधक नहीं।

अंत में मैं, इस वर्ष के आरंभ में राष्ट्र के नाम अपने स्वतंत्रता दिवस संबोधन की बात को दोहराना चाहूंगा। भ्रष्टाचार की बुराई के विरुद्ध रोष व्यक्त करना इस बीमारी के विरोध करने की तरह ही सही है। परंतु इसे हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं पर हमले का बहाना नहीं बनाया जाना चाहिए।

संस्थाएं हमारे संविधान के मजबूत स्तंभ हैं और यदि उनमें दरार आ गई तो हमारे संविधान का आदर्शवाद कायम नहीं रह सकता। हमारी संस्थाएं समय के साथ बदलाव चाह सकती हैं। इसका समाधान उस निर्माण को ध्वस्त करना नहीं है जो पहले हो चुका है, बल्कि उनकी पुनर्रचना करना है ताकि वे पहले से ज्यादा सुदृढ़ बन सकें। संस्थाएं हमारी स्वतंत्रता की परम संरक्षक हैं।

हमारे देश की न्यायपालिका न्याय की अंतिम प्रहरी और सच्चाई की विवाचक हैं तथा संसद जन आकांक्षाओं की रक्षक और उनके सपनों का साकार करने का ढांचा है। कार्यपालिका, विधायिका और न्यापालिका के सांविधिक ढांचे के अलावा, हाल ही में हमने सूचना का अधिकार, कानूनी सहायता, स्वतंत्र जांच एजेंसियां और कई अन्य उपयोगी कानून बनाए हैं। लोकपाल बिल संसद के समक्ष है। विदेशी एजेंटों द्वारा दी जाने वाली रिश्वत पर प्रतिबंध, सार्वजनिक प्रापण में पारदर्शिता, नागरिक शिकायत निवारण आदि के लिए नए कानूनों पर भी विचार चल रहा है। इन सभी से मौजूदा जवाबदेही से संबंधित संस्था सुदृढ़ होंगी वे विस्थापित या कमजोर नहीं होंगी। हमें घूस और भ्रष्टाचार और कुप्रशासन में, आपराधिक इरादे और दीवानी कदाचार में अंतर करना चाहिए तथा निर्दोष को बचाने की जरूरत के मद्देनजर भ्रष्टाचार के विरुद्ध तीव्र व प्रभावी प्रतिबंध की आवश्यकता को पहचानना चाहिए।

मुझे विश्वास है कि लोकायुक्त की संस्था, शासन में ईमानदारी बढ़ाने और भ्रष्टाचार व कुशासन की रोकथाम में उपयोगी योगदान करते हुए भारत में एक मजबूत और प्रभावी संस्था के रूप में उभरेगी। मैं इस सम्मेलन की सफलता के लिए शुभकामनाएं देता हूं।