मद्रास उच्च न्यायालय की डेढ़ सौ वीं वर्षगांठ समारोह के अवसर पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
चेन्नई, तमिलनाडु : 08.09.2012
मुझे, आज मद्रास उच्च न्यायालय की 150वीं वर्षगांठ समारोह के अवसर पर समापन भाषण देने के लिए चेन्नै में उपस्थित होकर बहुत प्रसन्नता हो रही है।
2. मद्रास उच्च न्यायालय का शानदार इतिहास है। यह न्यायालय महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी लैटर्स पेटेंट द्वारा भारत में स्थापित किए गए तीन न्यायालयों में से एक था और यह 1 जुलाई, 1862 को कलकत्ता उच्च न्यायालय और 14 अगस्त, 1862 को बॉम्बे उच्च न्यायालय के बाद स्थापित होने वाला तीसरा न्यायालय था।
3. जिस ऐतिहासिक संदर्भ में मद्रास उच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी, उसके लिए अतीत में लौटने की जरूरत है। 1799 में टीपू सुल्तान के निधन और श्रीरंगपट्टनम के पतन के साथ ही अंग्रेजों को चुनौती देने वाले दक्षिण के एकमात्र भारतीय राज्य का अवसान हो गया। 18वीं शताब्दी के मध्य तक, ब्रिटिश ताकत बहुत अधिक बढ़ गई थी और इसके प्रभाव से भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी के कामकाज में बढ़ोतरी हो रही थी। परिणामत: कम्पनी एक राजनीतिक ताकत के रूप में तेजी से उभरने लगी। एक व्यवस्थित और केन्द्रीकृत तरीके से न्याय प्रदान करने के लिए, कम्पनी ने 1801 में मद्रास में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना और बाद में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 के तहत जारी लेटर पेटेंट द्वारा 15 अगस्त, 1862 को सभी विधि न्यायालयों को मद्रास उच्च न्यायालय में विलय करके, न्यायिक प्रणाली का एकीकरण करने की प्रक्रिया आरंभ की।
4. यह दिलचस्प बात है कि मद्रास उच्च न्यायालय का औपचारिक उद्घाटन भारत की स्वतंत्रता से ठीक 85 वर्ष पहले, 15 अगस्त, 1862 को हुआ।
5. मद्रास उच्च न्यायालय के नाम पर, ऐसी बहुत सी उपलब्धियां हैं जिनमें वह प्रथम रहा है। इसी न्यायालय में, प्रथम भारतीय सर टी. मुथुस्वामी अय्यर को उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। भारत के प्रथम महाधिवक्ता सर वी. भाष्यम अयंगार भी यहीं से थे। मद्रास उच्च न्यायालय में ही पहली बार एक भारतीय डॉ. पी.वी. राजामन्नार भारत के मुख्य न्यायाधीश बने जिन्होंने 13 वर्षों तक सेवा की।
6. मद्रास उच्च न्यायालय महिलाओं के प्रवेश में भी अग्रणी रहा। बी. आनंदा बाई और सीता देवादोस, देश के अन्य विधिक न्यायालयों में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति मिलने से पहले ही अधिवक्ता बन चुकी थी।
7. वास्तव में, मुझे कलकत्ता और मद्रास के बीच एक खास सम्बन्ध दिखाई देता है। मद्रास बार के सदस्य सर शंकरन नायर ने ही, सर आशुतोष मुखर्जी और सर हेनरी शॉ के बीच विवाद के दौरान, कलकत्ता विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की लड़ाई लड़ी थी। बाद में, वह न्यायाधीश बनने से पहले महाधिवक्ता बने। इस बात का उल्लेख 6 अगस्त, 1962 को इसी उच्च न्यायालय के शताब्दी समारोह के अवसर पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया था।
8. कलकत्ता का मद्रास उच्च न्यायालय के साथ एक और सम्बन्ध यह रहा कि प्रसिद्ध अलीपुर बम विस्फोट मामले में, जिसमें श्री अरविंद एक अभियुक्त थे, विशेष लोक अभियोजक के रूप में मद्रास बार के सदस्य एर्डले नोर्टन की नियुक्ति की गई थी। यद्यपि एर्डले नोर्टन मद्रास बार के बैरिस्टर थे परंतु ब्रिटिश सरकार ने इस मुकदमे में वर्ष 1908 में एक विशेष लोक अभियोजक के तौर पर उनकी सेवाएं लीं थी।
9. एक अन्य सम्बन्ध भी था—भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सर फ्रैड्रिक विलियम जैंटल इसी न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे। इस न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति से पूर्व, उन्होंने यहां पर 1936-41 तक अवर न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के बाद, 1941-47 तक कलकत्ता उच्च न्यायालय में बतौर अवर न्यायाधीश बहुमूल्य सेवाएं दी थी।
देवियो और सज्जनो,
10. मद्रास उच्च न्यायालय की एक अद्भुत वास्तुकला संबंधी विशेषता, चैन्नै शहर पर नजर रखने वाला 175 फुट ऊंचा प्रकाश स्तंभ है। यह स्तंभ डेढ़ सौ वर्षों के दौरान इस उच्च न्यायालय द्वारा निभाई गई भूमिका का प्रतीक है। यह विधिक शासन का एक संरक्षक और वाच टावर रहा है, जिसका उद्देश्य हमारे नागरिकों को संविधान की प्रस्तावना में निहित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करना है।
11. मद्रास उच्च न्यायालय ने, इन वर्षों के दौरान मजबूत परंपराओं और आदर्शों से युक्त उच्च मानदण्ड वाले संस्थान के रूप में ख्याति प्राप्त की है। इसके न्यायाधीश और अधिवक्ता विधिक विद्वता व बौद्धिक विलक्षणता के लिए सुविख्यात रहे हैं। स्वतंत्रता और निष्पक्षता इसकी पहचान रहे हैं। इस न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों ने हमारे देश के विधिक और संवैधानिक ढांचे को मजबूत बनाने में बहुत योगदान दिया है।
12. मद्रास उच्च न्यायालय के बहुत से विद्वानों ने, राष्ट्रीय आंदोलन और स्वतंत्र भारत की राजनीति में योगदान दिया है। सर सी. शंकरन नायर पहले महाधिवक्ता, इसके बाद न्यायाधीश और अंत में वायसराय कौंसिल के सदस्य बने। वह कौंसिल की सदस्यता त्याग कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और 1897 में इसके अध्यक्ष बने।
13. ‘राजा जी’ नाम से लोकप्रिय श्री सी. राजागोपालाचारी का; वकालत छोड़ने और स्वतत्रता आंदोलन में शामिल होने से पहले इसी बार में एक सफल कानूनी करियर था। राजाजी ने 21 जून, 1948 से 26 जनवरी, 1950 तक भारत के गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया।
14. मेरे प्रख्यात पूर्ववर्ती, श्री आर. वेंकटरमन भी इस बार के सदस्य थे और 1987 से 1992 तक भारत के राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री और भारत के उपराष्ट्रपति जैसे विभिन्न पदों पर रह कर देश की सेवा की।
15. सर सी.पी. रामासामी अय्यर का नाम हमारी स्मृति में अंकित है। उनकी न केवल अच्छी-खासी वकालत थी और वह बाद में इस न्यायालय के महाधिवक्ता बने, वरन् वह डॉ. एनी बेसेंट के साथ स्वराज आंदोलन के नेता भी थे।
16. श्री वी. कृष्णास्वामी अय्यर एक और नाम है, जिन्हें इस न्यायालय और समग्र समाज दोनों में भारी योगदान के लिए याद किया जाना चाहिए। वह गोखले और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के घनिष्ठ मित्र थे और सर फिरोजशाह मेहता उनका बहुत सम्मान करते थे और ये सभी स्वतंत्रता आंदोलन में नरम विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे।
17. इन वर्षों के दौरान, जिन दूसरे विधिक विद्वानों को अपनी प्रतिभा के लिए जाना जाता था, उनमें सर टी. मुथुस्वामी अय्यर, सर सी. माधवन नायर, न्यायमूर्ति एम. पतंजलि शास्त्री, जो बाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने, सर वी. बाष्यम अयंगार, श्री टी.आर. वेंकटराम शास्त्री, श्री टी.आर. रामचंद्र अय्यर, डॉ. अल्लाडी कृष्णास्वामी अय्यर और हाल ही के समय में श्री एम.के. नाम्बियार और श्री गोविन्द स्वामीनाथन हैं। इस बार से ही श्री के. पारासरन और जी. रामास्वामी ने ने स्वतंत्र भारत के अटार्नी जनरल और श्री वी.पी. रमन और श्री के.के. वेणु गोपाल ने सॉलिसिटर जनरल के रूप में कार्य किया।
18. मद्रास बार के एक अग्रणी फौजदारी वकील मोहन कुमार मंगलम का भी विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए, जिन्होंने कम आयु में ही निधन से पूर्व, लौह और इस्पात खान मंत्री के रूप में कार्य किया।
19. वी.एल. एथिराज, श्री सुब्बाराय अय्यर और श्री पी.एस. सिवासामी अय्यर जैसे उच्च न्यायालय के वकीलों ने भी अनेक उच्च कोटि के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना करके राज्य में शिक्षा के प्रसार में योगदान दिया है।
20. इस न्यायालय के प्रख्यात अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों ने भी राष्ट्र निर्माण तथा सामाजिक न्याय की प्रगति में योगदान दिया है।
21. चंपकम दोरईराजन द्वारा दायर किए गए एक मामले ने संविधान के अनुच्छेद 15 में प्रथम संशोधन करने का मार्ग प्रशस्त किया। इस मामले में निर्णय के बाद, प्रथम संवैधानिक संशोधन अधिनियम 1951 के द्वारा, सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नागरिकों की प्रगति का विशेष प्रावधान करने के लिए, संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य को सक्षम बनाने वाला खण्ड (4) शामिल किया गया।
22. इसी प्रकार, न्यायिक समीक्षा से इतर कानूनों को एक जगह रखने के लिए संविधान में नवीं अनुसूची का जोड़ा जाना, मद्रास बार के एक सदस्य श्री वी.के. थिरुवेंकटाचारी के दिमाग की उपज थी जिन्होंने 13 वर्ष तक महाधिवक्ता के रूप में कार्य किया। जब पटना और कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जमींदारी समाप्त करने और भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों को असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14 और 31 को का उल्लंघन करने वाला बताकर रद्द कर दिया था, तब थिरुवेंकटाचारी ने नवीं अनुसूची को जोड़ने और इस अनुसूची में भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों को शामिल करने का सुझाव दिया।
देवियो और सज्जनो,
23. आइए, अब हम आज हमारे देश के कानूनी विमर्श पर छाये रहने वाले कुछ मुद्दों का उल्लेख करें।
24. हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सभी स्वीकार करते हैं और यह हमारे देश के प्रत्येक नागरिक के लिए गर्व का विषय है। भारतीय न्यायपालिका ने न्याय प्रदान करने में गुणवत्ता को कायम रखते हुए, मौलिक अधिकारों के दायरे को बढ़ाया है और लोकतंत्र का विस्तार किया है। हमें किसी भी प्रकार के अतिक्रमण से अपनी न्यायपालिका को बचाने और सुरक्षित रखने के लिए हर संभव प्रयास करना होगा। इसी के साथ, लोकतंत्र के एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ के तौर पर, न्यायपालिका को आत्मविश्लेषण और आत्मसुधार की प्रक्रिया के माध्यम से स्वयं को नया रूप देना चाहिए।
25. हमारे संविधान की प्रमुख विशेषताओं में से एक के रूप में, पहले से ही स्थापित अधिकारों की पृथकता से यह सुनिश्चित होता है कि सरकार का प्रत्येक अंग अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करे तथा दूसरे के लिए निर्धारित कार्यों में हस्तक्षेप न करे। संविधान ही सर्वोच्च है। विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उसे कार्यान्वित करती है तथा न्यायपालिका इन कानूनों की अंतिम निर्वचनकर्ता है। संविधान में निहित अधिकारों का नाजुक संतुलन सदैव कायम रखा जाना चाहिए।
26. हमारे जजों ने, नवान्वेषण और न्यायिक सक्रियता से न्याय की सीमाओं का विस्तार करने और हमारे देश के निर्धनतम व्यक्ति की उस तक पहुंच करवाने में बड़ा योगदान दिया है। एक विकासशील देश की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन होने पर ‘सुने जाने के अधिकार’ के सामान्य विधिक सिद्धांत का विस्तार किया है। व्यक्ति के अधिकारों के समर्थन में, न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करने के लिए एक पोस्ट कार्ड अथवा समाचार पत्र का लेख पर्याप्त रहा है। आज हमारे न्यायालय किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जिसका इरादा नेक हो तथा जो सार्वजनिक जांच के न्यायिक समाधान की कार्रवाई में पर्याप्त रुचि रखता हो, न्यायतंत्र की प्रक्रिया को शुरू करने की अनुमति प्रदान कर देते हैं।
27. तथापि, एक चेतावनी भी जरूरी है। न्यायिक सक्रियतावाद से अधिकारों की पृथकता के संवैधानिक सिद्धांत को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। न्यायिक निर्णयों में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को अलग करने वाली सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।
28. अधिकारों की पृथकता का सिद्धांत संयम का सिद्धांत भी है। जहां विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों का प्रयोग न्यायिक समीक्षा के अधीन है वहीं न्यायपालिका के अधिकारों के प्रयोग पर एकमात्र नियंत्रण आत्म-आरोपित अनुशासन और आत्मसंयम ही है।
29. न्यायाधीशों को परखना एक नाजुक और संवेदनशील मुद्दा है और विधिवेत्ताओं द्वारा इस संबंध में चिंता व्यक्त की जाती रही है। न्यायपालिका की विश्वसनीयता की रक्षा करने और बचाए रखने की आवश्यकता के साथ-साथ इसकी स्वतंत्रता का सावधानी से संतुलन करने वाला विधान, न्यायपालिका के स्वयं के प्रयासों का एक उपयोगी अनुपूरक है। अंतत: न्यायपालिका की विश्वसनीयता उन न्यायाधीशों की गुणवत्ता पर निर्भर करेगी जो देश के विभिन्न न्यायालयों का संचालन करते हैं। इस प्रकार न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया उच्चतम मानदण्डों के अनुरूप होनी चाहिए और यह सुस्थापित सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।
30. न्याय में देरी करना न्याय न देने के समान है। न्याय प्रशासन की गति तेज होनी चाहिए और सभी की उस तक पहुंच होनी चाहिए। विभिन्न चुनौतियों के बावजूद, भारत की न्यायपालिका बकाया मुकदमों को कम करने और तेजी से न्याय प्रदान करने के लिए कठोर परिश्रम कर रही है। हमारे न्यायालयों को और अधिक संसाधनों द्वारा सुदृढ़ किया जाना चाहिए तथा सरकार इस कार्य में पूरी तरह सहयोग दे रही है। एक राष्ट्रीय न्याय परिदान मिशन आरम्भ किया गया है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन किया जा रहा है तथा अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन के प्रयास जारी हैं।
31. देश भर के न्यायालयों में रिक्तियों को भरना एक ऐसा विषय है जिस पर सभी संबंधित लोगों द्वारा प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई की जानी चाहिए। हमें इस सम्बन्ध में तेजी से कार्य करना चाहिए परंतु गुणवत्ता पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।
32. हमारे देश की न्याय प्रणाली न केवल सुगम्य होनी चाहिए बल्कि वहनीय भी होनी चाहिए। मुकदमों में समय लगता है और यह खर्चीला है, इस सच्चाई को सभी जानते हैं। इसके समाधान के लिए, मध्यस्थता और विवाचन जैसे वैकिल्पक विवाद समाधान तंत्रों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे समयबद्ध और प्रभावी न्याय सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी तथा बकाया मुकदमों में कमी आएगी। बहुउद्देशीय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के प्रशासन में न्यायपालिका की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है, जिसके कई उद्देश्य हैं। पूरे राष्ट्र में विधिक साक्षरता के प्रसार के लिए और अधिक प्रयास करने की भी आवश्यकता है।
33. संविधान के अनुच्छेद 39ए में कहा गया है कि : ‘‘राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, खासकर यह सुनिश्चित करने के लिए, कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से, नि:शुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा।’’
34. सरकार, न्यायपालिका और अधिवक्ताओं को अपने स्वैच्छिक प्रयासों से इस संवैधानिक अपेक्षा को जनसाधारण के लिए एक जीती-जागती वास्तविकता बनाना चाहिए।
35. विधिक शिक्षा की गुणवत्ता सुधारना और महत्त्वाकांक्षी तथा युवा वकीलों में समुचित मूल्यों का समावेश करना आज की आवश्यकता है। मद्रास के अधिवक्ताओं ने बिना किसी हिचक न्यायिक पदों को स्वीकार किया है, भले ही इसमें उन्हें धन की हानि हुई हो। मद्रास उच्च न्यायालय की बार एसोसिएशनों ने विधि के विकास के सहयोग के लिए अपने ज्ञान और विशेषज्ञता का भी उपयोग किया है। मद्रास बार ने सिविल प्रक्रिया संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता जैसे बहुत से विधेयकों और कानूनों पर बहुमूल्य विचार उपलब्ध किए हैं। वास्तव में यह एक परम्परा है जिसका भारत की अन्य बार ऐसोसिएशनों द्वारा अनुकरण किया जाना चाहिए।
36. मद्रास उच्च न्यायालय की महान परंपराओं और सक्रियता ने कर्तव्यनिष्ठा की उच्च भावना का प्रदर्शन किया है जिनसे इस राज्य की न्यायपालिका और विधिक व्यवसाय को जीवंत कर दिया है। मुझे विश्वास है कि मद्रास उच्च न्यायालय अपने डेढ़ सौ वर्षों की महान विरासत को बनाए रखेगा। यह विधि, न्याय और विधि-शास्त्र के विकास में अपना योगदान बढ़ाएगा। इसी के साथ इसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आम जनता के लिए निष्ठा व समर्पण के साथ न्याय प्रशासन जारी रहे।
मैं, मद्रास उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों, बार के सदस्यों और स्टाफ को उनकी पूर्व उपलब्धियों के लिए बधाई देता हूं और उनके भावी प्रयासों के लिए अपनी शुभकामनाएं देता हूं।
2. मद्रास उच्च न्यायालय का शानदार इतिहास है। यह न्यायालय महारानी विक्टोरिया द्वारा जारी लैटर्स पेटेंट द्वारा भारत में स्थापित किए गए तीन न्यायालयों में से एक था और यह 1 जुलाई, 1862 को कलकत्ता उच्च न्यायालय और 14 अगस्त, 1862 को बॉम्बे उच्च न्यायालय के बाद स्थापित होने वाला तीसरा न्यायालय था।
3. जिस ऐतिहासिक संदर्भ में मद्रास उच्च न्यायालय की स्थापना की गई थी, उसके लिए अतीत में लौटने की जरूरत है। 1799 में टीपू सुल्तान के निधन और श्रीरंगपट्टनम के पतन के साथ ही अंग्रेजों को चुनौती देने वाले दक्षिण के एकमात्र भारतीय राज्य का अवसान हो गया। 18वीं शताब्दी के मध्य तक, ब्रिटिश ताकत बहुत अधिक बढ़ गई थी और इसके प्रभाव से भारत में ईस्ट इण्डिया कंपनी के कामकाज में बढ़ोतरी हो रही थी। परिणामत: कम्पनी एक राजनीतिक ताकत के रूप में तेजी से उभरने लगी। एक व्यवस्थित और केन्द्रीकृत तरीके से न्याय प्रदान करने के लिए, कम्पनी ने 1801 में मद्रास में सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना और बाद में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 के तहत जारी लेटर पेटेंट द्वारा 15 अगस्त, 1862 को सभी विधि न्यायालयों को मद्रास उच्च न्यायालय में विलय करके, न्यायिक प्रणाली का एकीकरण करने की प्रक्रिया आरंभ की।
4. यह दिलचस्प बात है कि मद्रास उच्च न्यायालय का औपचारिक उद्घाटन भारत की स्वतंत्रता से ठीक 85 वर्ष पहले, 15 अगस्त, 1862 को हुआ।
5. मद्रास उच्च न्यायालय के नाम पर, ऐसी बहुत सी उपलब्धियां हैं जिनमें वह प्रथम रहा है। इसी न्यायालय में, प्रथम भारतीय सर टी. मुथुस्वामी अय्यर को उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। भारत के प्रथम महाधिवक्ता सर वी. भाष्यम अयंगार भी यहीं से थे। मद्रास उच्च न्यायालय में ही पहली बार एक भारतीय डॉ. पी.वी. राजामन्नार भारत के मुख्य न्यायाधीश बने जिन्होंने 13 वर्षों तक सेवा की।
6. मद्रास उच्च न्यायालय महिलाओं के प्रवेश में भी अग्रणी रहा। बी. आनंदा बाई और सीता देवादोस, देश के अन्य विधिक न्यायालयों में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति मिलने से पहले ही अधिवक्ता बन चुकी थी।
7. वास्तव में, मुझे कलकत्ता और मद्रास के बीच एक खास सम्बन्ध दिखाई देता है। मद्रास बार के सदस्य सर शंकरन नायर ने ही, सर आशुतोष मुखर्जी और सर हेनरी शॉ के बीच विवाद के दौरान, कलकत्ता विश्वविद्यालय की स्वायत्तता की लड़ाई लड़ी थी। बाद में, वह न्यायाधीश बनने से पहले महाधिवक्ता बने। इस बात का उल्लेख 6 अगस्त, 1962 को इसी उच्च न्यायालय के शताब्दी समारोह के अवसर पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने किया था।
8. कलकत्ता का मद्रास उच्च न्यायालय के साथ एक और सम्बन्ध यह रहा कि प्रसिद्ध अलीपुर बम विस्फोट मामले में, जिसमें श्री अरविंद एक अभियुक्त थे, विशेष लोक अभियोजक के रूप में मद्रास बार के सदस्य एर्डले नोर्टन की नियुक्ति की गई थी। यद्यपि एर्डले नोर्टन मद्रास बार के बैरिस्टर थे परंतु ब्रिटिश सरकार ने इस मुकदमे में वर्ष 1908 में एक विशेष लोक अभियोजक के तौर पर उनकी सेवाएं लीं थी।
9. एक अन्य सम्बन्ध भी था—भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के समय सर फ्रैड्रिक विलियम जैंटल इसी न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे। इस न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति से पूर्व, उन्होंने यहां पर 1936-41 तक अवर न्यायाधीश के रूप में कार्य करने के बाद, 1941-47 तक कलकत्ता उच्च न्यायालय में बतौर अवर न्यायाधीश बहुमूल्य सेवाएं दी थी।
देवियो और सज्जनो,
10. मद्रास उच्च न्यायालय की एक अद्भुत वास्तुकला संबंधी विशेषता, चैन्नै शहर पर नजर रखने वाला 175 फुट ऊंचा प्रकाश स्तंभ है। यह स्तंभ डेढ़ सौ वर्षों के दौरान इस उच्च न्यायालय द्वारा निभाई गई भूमिका का प्रतीक है। यह विधिक शासन का एक संरक्षक और वाच टावर रहा है, जिसका उद्देश्य हमारे नागरिकों को संविधान की प्रस्तावना में निहित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान करना है।
11. मद्रास उच्च न्यायालय ने, इन वर्षों के दौरान मजबूत परंपराओं और आदर्शों से युक्त उच्च मानदण्ड वाले संस्थान के रूप में ख्याति प्राप्त की है। इसके न्यायाधीश और अधिवक्ता विधिक विद्वता व बौद्धिक विलक्षणता के लिए सुविख्यात रहे हैं। स्वतंत्रता और निष्पक्षता इसकी पहचान रहे हैं। इस न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों ने हमारे देश के विधिक और संवैधानिक ढांचे को मजबूत बनाने में बहुत योगदान दिया है।
12. मद्रास उच्च न्यायालय के बहुत से विद्वानों ने, राष्ट्रीय आंदोलन और स्वतंत्र भारत की राजनीति में योगदान दिया है। सर सी. शंकरन नायर पहले महाधिवक्ता, इसके बाद न्यायाधीश और अंत में वायसराय कौंसिल के सदस्य बने। वह कौंसिल की सदस्यता त्याग कर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए और 1897 में इसके अध्यक्ष बने।
13. ‘राजा जी’ नाम से लोकप्रिय श्री सी. राजागोपालाचारी का; वकालत छोड़ने और स्वतत्रता आंदोलन में शामिल होने से पहले इसी बार में एक सफल कानूनी करियर था। राजाजी ने 21 जून, 1948 से 26 जनवरी, 1950 तक भारत के गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया।
14. मेरे प्रख्यात पूर्ववर्ती, श्री आर. वेंकटरमन भी इस बार के सदस्य थे और 1987 से 1992 तक भारत के राष्ट्रपति बनने से पहले उन्होंने वित्त मंत्री, रक्षा मंत्री, गृह मंत्री और भारत के उपराष्ट्रपति जैसे विभिन्न पदों पर रह कर देश की सेवा की।
15. सर सी.पी. रामासामी अय्यर का नाम हमारी स्मृति में अंकित है। उनकी न केवल अच्छी-खासी वकालत थी और वह बाद में इस न्यायालय के महाधिवक्ता बने, वरन् वह डॉ. एनी बेसेंट के साथ स्वराज आंदोलन के नेता भी थे।
16. श्री वी. कृष्णास्वामी अय्यर एक और नाम है, जिन्हें इस न्यायालय और समग्र समाज दोनों में भारी योगदान के लिए याद किया जाना चाहिए। वह गोखले और सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के घनिष्ठ मित्र थे और सर फिरोजशाह मेहता उनका बहुत सम्मान करते थे और ये सभी स्वतंत्रता आंदोलन में नरम विचारों का प्रतिनिधित्व करते थे।
17. इन वर्षों के दौरान, जिन दूसरे विधिक विद्वानों को अपनी प्रतिभा के लिए जाना जाता था, उनमें सर टी. मुथुस्वामी अय्यर, सर सी. माधवन नायर, न्यायमूर्ति एम. पतंजलि शास्त्री, जो बाद में भारत के मुख्य न्यायाधीश बने, सर वी. बाष्यम अयंगार, श्री टी.आर. वेंकटराम शास्त्री, श्री टी.आर. रामचंद्र अय्यर, डॉ. अल्लाडी कृष्णास्वामी अय्यर और हाल ही के समय में श्री एम.के. नाम्बियार और श्री गोविन्द स्वामीनाथन हैं। इस बार से ही श्री के. पारासरन और जी. रामास्वामी ने ने स्वतंत्र भारत के अटार्नी जनरल और श्री वी.पी. रमन और श्री के.के. वेणु गोपाल ने सॉलिसिटर जनरल के रूप में कार्य किया।
18. मद्रास बार के एक अग्रणी फौजदारी वकील मोहन कुमार मंगलम का भी विशेष उल्लेख किया जाना चाहिए, जिन्होंने कम आयु में ही निधन से पूर्व, लौह और इस्पात खान मंत्री के रूप में कार्य किया।
19. वी.एल. एथिराज, श्री सुब्बाराय अय्यर और श्री पी.एस. सिवासामी अय्यर जैसे उच्च न्यायालय के वकीलों ने भी अनेक उच्च कोटि के शैक्षिक संस्थानों की स्थापना करके राज्य में शिक्षा के प्रसार में योगदान दिया है।
20. इस न्यायालय के प्रख्यात अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों ने भी राष्ट्र निर्माण तथा सामाजिक न्याय की प्रगति में योगदान दिया है।
21. चंपकम दोरईराजन द्वारा दायर किए गए एक मामले ने संविधान के अनुच्छेद 15 में प्रथम संशोधन करने का मार्ग प्रशस्त किया। इस मामले में निर्णय के बाद, प्रथम संवैधानिक संशोधन अधिनियम 1951 के द्वारा, सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के नागरिकों की प्रगति का विशेष प्रावधान करने के लिए, संविधान के अनुच्छेद 15 में राज्य को सक्षम बनाने वाला खण्ड (4) शामिल किया गया।
22. इसी प्रकार, न्यायिक समीक्षा से इतर कानूनों को एक जगह रखने के लिए संविधान में नवीं अनुसूची का जोड़ा जाना, मद्रास बार के एक सदस्य श्री वी.के. थिरुवेंकटाचारी के दिमाग की उपज थी जिन्होंने 13 वर्ष तक महाधिवक्ता के रूप में कार्य किया। जब पटना और कलकत्ता उच्च न्यायालय ने जमींदारी समाप्त करने और भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों को असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 14 और 31 को का उल्लंघन करने वाला बताकर रद्द कर दिया था, तब थिरुवेंकटाचारी ने नवीं अनुसूची को जोड़ने और इस अनुसूची में भूमि सुधार सम्बन्धी कानूनों को शामिल करने का सुझाव दिया।
देवियो और सज्जनो,
23. आइए, अब हम आज हमारे देश के कानूनी विमर्श पर छाये रहने वाले कुछ मुद्दों का उल्लेख करें।
24. हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सभी स्वीकार करते हैं और यह हमारे देश के प्रत्येक नागरिक के लिए गर्व का विषय है। भारतीय न्यायपालिका ने न्याय प्रदान करने में गुणवत्ता को कायम रखते हुए, मौलिक अधिकारों के दायरे को बढ़ाया है और लोकतंत्र का विस्तार किया है। हमें किसी भी प्रकार के अतिक्रमण से अपनी न्यायपालिका को बचाने और सुरक्षित रखने के लिए हर संभव प्रयास करना होगा। इसी के साथ, लोकतंत्र के एक महत्त्वपूर्ण स्तंभ के तौर पर, न्यायपालिका को आत्मविश्लेषण और आत्मसुधार की प्रक्रिया के माध्यम से स्वयं को नया रूप देना चाहिए।
25. हमारे संविधान की प्रमुख विशेषताओं में से एक के रूप में, पहले से ही स्थापित अधिकारों की पृथकता से यह सुनिश्चित होता है कि सरकार का प्रत्येक अंग अपने-अपने क्षेत्र में कार्य करे तथा दूसरे के लिए निर्धारित कार्यों में हस्तक्षेप न करे। संविधान ही सर्वोच्च है। विधायिका कानून बनाती है, कार्यपालिका उसे कार्यान्वित करती है तथा न्यायपालिका इन कानूनों की अंतिम निर्वचनकर्ता है। संविधान में निहित अधिकारों का नाजुक संतुलन सदैव कायम रखा जाना चाहिए।
26. हमारे जजों ने, नवान्वेषण और न्यायिक सक्रियता से न्याय की सीमाओं का विस्तार करने और हमारे देश के निर्धनतम व्यक्ति की उस तक पहुंच करवाने में बड़ा योगदान दिया है। एक विकासशील देश की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने नागरिकों के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन होने पर ‘सुने जाने के अधिकार’ के सामान्य विधिक सिद्धांत का विस्तार किया है। व्यक्ति के अधिकारों के समर्थन में, न्यायालय द्वारा हस्तक्षेप करने के लिए एक पोस्ट कार्ड अथवा समाचार पत्र का लेख पर्याप्त रहा है। आज हमारे न्यायालय किसी भी ऐसे व्यक्ति को, जिसका इरादा नेक हो तथा जो सार्वजनिक जांच के न्यायिक समाधान की कार्रवाई में पर्याप्त रुचि रखता हो, न्यायतंत्र की प्रक्रिया को शुरू करने की अनुमति प्रदान कर देते हैं।
27. तथापि, एक चेतावनी भी जरूरी है। न्यायिक सक्रियतावाद से अधिकारों की पृथकता के संवैधानिक सिद्धांत को हानि नहीं पहुंचनी चाहिए। न्यायिक निर्णयों में विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को अलग करने वाली सीमाओं का सम्मान किया जाना चाहिए।
28. अधिकारों की पृथकता का सिद्धांत संयम का सिद्धांत भी है। जहां विधायिका और कार्यपालिका के अधिकारों का प्रयोग न्यायिक समीक्षा के अधीन है वहीं न्यायपालिका के अधिकारों के प्रयोग पर एकमात्र नियंत्रण आत्म-आरोपित अनुशासन और आत्मसंयम ही है।
29. न्यायाधीशों को परखना एक नाजुक और संवेदनशील मुद्दा है और विधिवेत्ताओं द्वारा इस संबंध में चिंता व्यक्त की जाती रही है। न्यायपालिका की विश्वसनीयता की रक्षा करने और बचाए रखने की आवश्यकता के साथ-साथ इसकी स्वतंत्रता का सावधानी से संतुलन करने वाला विधान, न्यायपालिका के स्वयं के प्रयासों का एक उपयोगी अनुपूरक है। अंतत: न्यायपालिका की विश्वसनीयता उन न्यायाधीशों की गुणवत्ता पर निर्भर करेगी जो देश के विभिन्न न्यायालयों का संचालन करते हैं। इस प्रकार न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया उच्चतम मानदण्डों के अनुरूप होनी चाहिए और यह सुस्थापित सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।
30. न्याय में देरी करना न्याय न देने के समान है। न्याय प्रशासन की गति तेज होनी चाहिए और सभी की उस तक पहुंच होनी चाहिए। विभिन्न चुनौतियों के बावजूद, भारत की न्यायपालिका बकाया मुकदमों को कम करने और तेजी से न्याय प्रदान करने के लिए कठोर परिश्रम कर रही है। हमारे न्यायालयों को और अधिक संसाधनों द्वारा सुदृढ़ किया जाना चाहिए तथा सरकार इस कार्य में पूरी तरह सहयोग दे रही है। एक राष्ट्रीय न्याय परिदान मिशन आरम्भ किया गया है। उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की सेवानिवृत्ति की आयु बढ़ाने के लिए संविधान में संशोधन किया जा रहा है तथा अखिल भारतीय न्यायिक सेवा के गठन के प्रयास जारी हैं।
31. देश भर के न्यायालयों में रिक्तियों को भरना एक ऐसा विषय है जिस पर सभी संबंधित लोगों द्वारा प्राथमिकता के आधार पर कार्रवाई की जानी चाहिए। हमें इस सम्बन्ध में तेजी से कार्य करना चाहिए परंतु गुणवत्ता पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए।
32. हमारे देश की न्याय प्रणाली न केवल सुगम्य होनी चाहिए बल्कि वहनीय भी होनी चाहिए। मुकदमों में समय लगता है और यह खर्चीला है, इस सच्चाई को सभी जानते हैं। इसके समाधान के लिए, मध्यस्थता और विवाचन जैसे वैकिल्पक विवाद समाधान तंत्रों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। इससे समयबद्ध और प्रभावी न्याय सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी तथा बकाया मुकदमों में कमी आएगी। बहुउद्देशीय विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के प्रशासन में न्यायपालिका की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका है, जिसके कई उद्देश्य हैं। पूरे राष्ट्र में विधिक साक्षरता के प्रसार के लिए और अधिक प्रयास करने की भी आवश्यकता है।
33. संविधान के अनुच्छेद 39ए में कहा गया है कि : ‘‘राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, खासकर यह सुनिश्चित करने के लिए, कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से, नि:शुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा।’’
34. सरकार, न्यायपालिका और अधिवक्ताओं को अपने स्वैच्छिक प्रयासों से इस संवैधानिक अपेक्षा को जनसाधारण के लिए एक जीती-जागती वास्तविकता बनाना चाहिए।
35. विधिक शिक्षा की गुणवत्ता सुधारना और महत्त्वाकांक्षी तथा युवा वकीलों में समुचित मूल्यों का समावेश करना आज की आवश्यकता है। मद्रास के अधिवक्ताओं ने बिना किसी हिचक न्यायिक पदों को स्वीकार किया है, भले ही इसमें उन्हें धन की हानि हुई हो। मद्रास उच्च न्यायालय की बार एसोसिएशनों ने विधि के विकास के सहयोग के लिए अपने ज्ञान और विशेषज्ञता का भी उपयोग किया है। मद्रास बार ने सिविल प्रक्रिया संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता जैसे बहुत से विधेयकों और कानूनों पर बहुमूल्य विचार उपलब्ध किए हैं। वास्तव में यह एक परम्परा है जिसका भारत की अन्य बार ऐसोसिएशनों द्वारा अनुकरण किया जाना चाहिए।
36. मद्रास उच्च न्यायालय की महान परंपराओं और सक्रियता ने कर्तव्यनिष्ठा की उच्च भावना का प्रदर्शन किया है जिनसे इस राज्य की न्यायपालिका और विधिक व्यवसाय को जीवंत कर दिया है। मुझे विश्वास है कि मद्रास उच्च न्यायालय अपने डेढ़ सौ वर्षों की महान विरासत को बनाए रखेगा। यह विधि, न्याय और विधि-शास्त्र के विकास में अपना योगदान बढ़ाएगा। इसी के साथ इसे यह भी सुनिश्चित करना होगा कि आम जनता के लिए निष्ठा व समर्पण के साथ न्याय प्रशासन जारी रहे।
मैं, मद्रास उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों, बार के सदस्यों और स्टाफ को उनकी पूर्व उपलब्धियों के लिए बधाई देता हूं और उनके भावी प्रयासों के लिए अपनी शुभकामनाएं देता हूं।
जय हिंद!