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मध्यस्थता पर राष्ट्रीय जिला स्तरीय संगोष्ठी के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

नई दिल्ली : 10.11.2012



मुझे, मध्यस्थता पर राष्ट्रीय ‘जिला स्तरीय’ संगोष्ठी का उद्घाटन करते हुए खुशी हो रही है, जिनका विषय, ‘संस्थागत स्तर पर मध्यस्थता को सशक्त करने में जिला न्यायपालिका की भूमिका’ है।

विवादों के समाधान की प्रक्रिया के रूप में मध्यस्थता भारत के लिए नई नहीं है। अंग्रेजों के आगमन से बहुत पहले, भारत में पंचायत प्रणाली ऐसा मंच हुआ करता था जहां गांव के सम्माननीय बुजुर्ग, समुदाय में होने वाले विवादों को हल करने में सहयोग देते थे। आज भी गांवों और हमारे जनजातीय समुदायों में इस तरह की परंपरागत मध्यस्थता प्रचलन में है।

अंग्रेजी हुकुमत से पहले भारत में मध्यस्थता व्यापारियों के बीच लोकप्रिय थी। ऐसे निष्पक्ष तथा सम्माननीय व्यापारियों से, जिन्हें महाजन कहा जाता था, व्यापारियों के संघों द्वारा अनौपचारिक पद्धतियों से विवादों को सुलझाने का अनुरोध किया जाता था और इनमें ऐसी तकनीकों का इस्तेमाल होता था जो आज भी प्रचलित हैं। यद्यपि इन प्रक्रियाओं को कानूनी प्राधिकार प्राप्त नहीं था फिर भी ये मध्यस्थता प्रक्रियाएं लगातार प्रयोग की जाती थी और भारतीय पक्षकारों द्वारा इन्हें प्राय: स्वीकार किया जाता था।

अंग्रेजों के शासन के साथ एंग्लो-सेक्शन विधिशास्त्र की प्रतिपक्षी प्रणाली का आगमन हुआ जो आज तक प्रचलित है। परंतु आजादी के बाद वैकल्पिक विवाद समाधान प्रक्रियाएं नए-नए रूप में सामने आती रहीं और 1987 में विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम के लागू होने से, हमने लोक अदालतों के रूप में अपनी पुरानी मध्यस्थता प्रक्रिया को फिर से शुरू होते देखा।

यह स्वीकार करना जरूरी है कि हमारे देश में मौजूद मजबूत, स्वतंत्र तथा निष्पक्ष न्यायिक प्रणाली होने के बावजूद यह एक खेदजनक सच्चाई है कि कानूनी विवाद लम्बे समय तक खिंचते हैं तथा खर्चीले होते हैं। कानूनों की जटिलता, अत्यधिक विलंब तथा संसाधनों के मुकदमेबाजी में निरर्थक उपयोग जैसे मुद्दों से जनता बहुत अधिक परेशान है। बहुत से सामाजिक विवाद भी कानूनी विवादों में तबदील हो गए हैं जिससे समस्या का समाधान होने के बजाय उसमें वृद्धि होती है इसलिए इस समय विवादों के समाधान की वैकल्पिक पद्धतियों को प्रोत्साहित करने तथा लोकप्रिय बनाने की जरूरत है। वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों से न केवल शीघ्र न्याय मिलता है, बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अंतिम निष्कर्ष पर संबंधित पक्षकारों का नियंत्रण होता है। इससे निर्णयों का तुरंत कार्यान्वयन होता है तथा आगे अपीलों के रूप में निरंतर मुकदमेबाजी से भी बचाव होता है। खास बात यह है कि यदि मध्यस्थता से मामला सुलझता है तो पक्षकारों द्वारा जमा किए गए न्यायालय शुल्क का काफी बड़ा हिस्सा उन्हें वापस मिल जाता है। इसी कारण पूरी व्यापारिक दुनिया तथा खासकर सामान्य विधि के क्षेत्र में यह माना जाता है कि ठीक ढंग से की गईं मध्यस्थताएं ऐसे सबसे ज्यादा कारगर माध्यम हैं जिनसे दीवानी तथा व्यापारिक विवादों में फंसे हुए पक्षकार अपने-अपने मामलों को सुलझा सकते हैं। यह जगजाहिर है कि मध्यस्थता पारिवारिक तथा वैवाहिक मामलों के सौहार्दपूर्ण समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। सरकारी विभागों और एजेंसियों के बीच विवाद भी संभवत: मुकदमों के बजाय मध्यस्थता से अच्छे ढंग से सुलझाए जा सकते हैं।

अमरीका के एक प्रख्यात मध्यस्थ जोसेफ ग्रायनबोम ने कहा था, ‘‘मध्यस्थता का एक औंस, माध्यस्थम के एक पौंड तथा मुकदमेबाजी के एक टन के बराबर है।’’

मैं, भारत के उच्चतम न्यायालय को इस बात के लिए बधाई देता हूं कि उन्होंने 2005 में मध्यस्थता तथा सुलह परियोजना समिति की स्थापना की तथा देश भर में वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धतियों को प्रोत्साहित किया और बढ़ावा दिया।

हम भारत के आम आदमी के हितों की रक्षा तभी कर पाएंगे जब वैकल्पिक विवाद समाधान, भारतीय न्याय प्रणाली का एक अभिन्न अंग बन जाएगा।

विवाद में शामिल भागीदारों को उनकी कार्रवाई की प्रकृति, उनके गुणावगुण, सीमाओं और परिणामों से पूरी तरह अवगत कराया जाना चाहिए। विवाद में फंसे लोगों तक पहुंचने का सबसे अच्छा रास्ता है उनको मध्यस्थता के बारे में जानकारी देना, जनता को जागरूक करना तथा सभी को मध्यस्थता तथा सुलह की उपलब्धता तथा प्राप्यता के बारे में सूचना प्रदान करना। मध्यस्थता को केवल शहरों में ही लोकप्रिय बनाना काफी नहीं है। जागरूकता निम्नतम् स्तर तक पहुंचनी चाहिए। लोगों को पहले मुकदमेबाजी के बजाय मध्यस्थता का सहारा लेने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

इस विषय में प्रशासनिक और न्यायिक तंत्र को सहनशीलता और दृढ़ता दिखाने की जरूरत है। प्रत्येक समाज में बदलाव के प्रति अनिच्छा का भाव मौजूद होता है। लोगों को विकल्प के बारे में पता होता है परंतु वे मुकदमेबाजी के प्रचलित उपाय को अधिक सुगम मानते हैं। न्याय प्राप्त करने वालों के लिए मुकदमा पहला विकल्प रहा है और उनके लिए यह स्वाभाविक है कि वे अपने विवादों के समाधान के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाएं।

परंतु यही वह समय है जब जिला न्यायालय तथा न्यायपालिका को बड़ी भूमिका निभानी है। उन्हें वादकारियों को यह बात समझानी चाहिए कि मध्यस्थता में मानवीयता के साथ लाभ प्राप्त होते हैं। कोई भी हारता या जीतता नहीं है। इसमें कोई सीमा अथवा प्रतिबंध नहीं है। यही वह व्यवहार्य तथा लचीला रास्ता है जो कि सभी संबंधितों के फायदे में होता है।

वर्तमान भारत में सामाजिक रूप से जागरूक नए अधिवक्ताओं के लिए कानूनी शिक्षा में वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धतियों को अनिवार्यत: शामिल किया जाना चाहिए।

एक ऐसे व्यक्ति के रूप में जिसने कानून पढ़ा है तथा कई दशकों से जनता की सेवा में रहा है, व्यक्तिगत तौर पर मेरा अनुभव है कि अधिकतर विवादों का समाधान संबंधित व्यक्तियों में संप्रेषण की कमी या फिर अहम् के कारण मुश्किल हो जाता है। मैंने सदैव यह पाया है कि कारगर संप्रेषण के साथ संबंधित व्यक्तियों की चिंताओं के प्रति संवेदनशीलता से अधिकतर विवादों का समाधान संभव हो जाता है। एकदम बुनियादी स्तर पर, केवल इस बात की जरूरत होती है कि एक अनौपचारिक तथा गोपनीय प्रक्रिया अपनाई जाए तथा ऐसे तीसरे पक्षकार से सहायता ली जाए जो दोनों के हितों का ध्यान रखते हुए मामले पर बातचीत करके उसका समाधन कर सके। यह विषय बंटवारा करने का नहीं बल्कि इस प्रक्रिया में शामिल सभी को विजयी होने का अहसास दिलाने का है।

मैं मध्यस्थता तथा सुलह परियोजना समिति को, वैकल्पिक विवाद समाधन को बढ़ावा देने के उनके प्रयासों में सफलता के लिए शुभकामनाएं देता हूं। मैं यहां उपस्थित सभी भागीदारों से इस काम में पूरे दिल से जुटने, हमारी प्राचीन परंपराओं से लाभ उठाने तथा आम आदमी के हित को ध्यान में रखने का आह्वान करता हूं।

मैं इस संगोष्ठी की सफलता की कामना करता हूं।

जय हिंद!