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भारतीय कृषि में सार्वजनिक-निजी भागीदारी के द्वारा दूसरी हरित क्रांति की शुरुआत पर राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

विज्ञान भवन, नई दिल्ली : 11.12.2012



श्री ताऱिक अनवर, कृषि एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योग मंत्री, श्री अदि. बी.गोदरेज, अध्यक्ष भारतीय उद्योग परिसंघ, श्री एस. गोपालकृष्णन, नामित अध्यक्ष, सीआईआई तथा कार्यकारी उपाध्यक्ष, इन्फोसिस, श्री राकेश भारती मित्तल, अध्यक्ष, सीआईआई की कृषि संबंधी राष्ट्रीय परिषद तथा उपाध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक भारती एन्टरप्राइजेज, श्री अजय श्रीराम, उपाध्यक्ष सीआईआई और श्री चंद्रजीत बनर्जी, महानिदेशक, सीआईआई, और देवियो और सज्जनो,

मुझे आज ‘भारतीय कृषि में सार्वजनिक-निजी भागीदारी के द्वारा दूसरी हरित क्रांति की शुरुआत’ पर राष्ट्रीय सम्मेलन का उद्घाटन करने के लिए यहां उपस्थित होकर बहुत प्रसन्नता हो रही है, जिसे कृषि मंत्रालय द्वारा भारतीय उद्योग परिसंघ के सहयोग से आयोजित किया जा रहा है।

मुझे विशेषकर बुद्धिजीवियों, वैज्ञानिकों, नीतिनिर्धारकों तथा उद्योगपतियों की इस महती सभा के समक्ष एक ऐसे विषय पर अपने विचार रखते हुए खुशी हो रही है जो कि हमारे जैसे देश के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जिसकी आधी श्रमशक्ति इस सेक्टर में कार्यरत है। अत: यह जरूरी है कि हम उन मुद्दों पर अधिक ध्यान दें जो कि इस सेक्टर को परेशान कर रही हैं क्योंकि इस सेक्टर का गरीबी से सीधा संबंध है जिसके उन्मूलन के लिए हम संघर्षरत हैं। देश द्वारा पिछले छह दशकों में जो आर्थिक तरक्की की गई है, उसके बावजूद हम अपने ग्रामीण क्षेत्र की उस अधिकांश जनसंख्या की अनदेखी नहीं कर सकते जो कि अपनी रोजी-रोटी के लिए कृषि पर निर्भर है।

कृषि इस देश की आत्मा है। यह वह सबसे मौलिक कार्यकलाप है जिस पर मानव जाति अपने अस्तित्व के लिए निर्भर करती है। लोगों का कृषि के साथ संबंध का तथा प्राचीनकाल से ही इसे जो महत्त्व दिया जाता है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमारे देश के विभिन्न हिस्सों के त्यौहार इसी पेशे से शुरू होते हैं।

हमारे आर्थिक संक्रमण के दौरान, देश की आय में कृषि का योगदान धीरे-धीरे घटा है। नवीं पंचवर्षीय योजना अवधि के दौरान कृषि सेक्टर का योगदान 23.4 प्रतिशत था। दसवीं पंचवर्षीय योजना अवधि में यह घटकर 19 प्रतिशत तथा ग्यारहवीं योजना अवधि के दौरान 15.2 प्रतिशत रह गया। यह इस बात का प्रतीक है कि कृषि तथा संबंधित सेक्टर की विकास दर हमारी अर्थव्यवस्था की समग्र विकास दर के मुकाबले पिछड़ी है। नवीं, दसवीं और ग्यारहवीं योजना अवधि के दौरान कृषि एवं संबंधित सेक्टर की विकास दर क्रमश: 2.5 प्रतिशत, 2.4 प्रतिशत तथा 3.3 प्रतिशत थी। इसकी तुलना में इसी अवधि में समग्र अर्थव्यवस्था की औसत वृद्धि दर काफी अधिक अर्थात् 5.7 प्रतिशत, 7.6 प्रतिशत तथा 7.9 प्रतिशत थी।

भारत की कुल जनसंख्या का करीब 69 प्रतिशत हिस्सा ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करता है। योजना आयोग के सर्वेक्षण के अनुसार, ग्रामीण जनता में निर्धनता का अनुपात 34 प्रतिशत के लगभग है जबकि अखिल भारतीय निर्धनता अनुपात लगभग 30 प्रतिशत है। इस प्रकार निर्धनता के उन्मूलन के लिए, समावेशी विकास को बढ़ावा दें, खाद्य सुरक्षा को बढ़ावा दें, रोजगार के अवसर बढ़ाएं तथा ग्रामीण आय को बढ़ाएं, यह जरूरी है कि कृषि में और तेजी के साथ प्रगति हो।

वर्ष 2011-12 के दौरान कृषि एवं संबंधित सेक्टर की विकास दर 2.8 प्रतिशत थी जो कि उससे पिछले वर्ष की 7 प्रतिशत की विकास दर से बहुत कम थी, परंतु 2008-09 तथा 2009-10 की क्रमश: 0.4 प्रतिशत तथा 1.7 प्रतिशत की विकास दर के मुकाबले अच्छी थी। हालांकि मौजूदा वित्तीय वर्ष के पूर्वाद्ध में इस सेक्टर की 2.1 प्रतिशत की विकास दर बहुत अच्छी नहीं है परंतु मुझे उम्मीद है कि उत्तरार्ध में हमें कुछ उत्साहजनक परिणाम मिलेंगे। कृषि विकास में इतना अंतर विशेष तौर पर मौसम की मनमानी के कारण हुआ है।

सफल फसल के लिए अच्छे मौसम पर निर्भरता भारतीय कृषि की समस्या रही है। परंतु यदि हमें इस सेक्टर में बहुत अधिक प्रगति देखनी है तो हमें सुव्यवस्थित तथा सप्रयास कार्ययोजना बनाकर इसे यथासंभव प्रकृति के चंगुल से निकालना होगा जैसा कि विकसित देशों ने किया है।

खाद्यान्न में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने का भारत में पहली हरित क्रांति का लक्ष्य अधिक उपज वाले बीज, उर्वरकों का अधिक प्रयोग तथा सिंचाई व्यवस्था मजबूत करके साठवें दशक में प्राप्त किया गया था। हमने आत्मनिर्भरता का यह लक्ष्य सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिया है। वर्ष 2011-12 में देश में कुल खाद्यान्न उत्पादन 257 मिलियन टन था जो कि उस वर्ष के लिए निर्धारित 245 टन के लक्ष्य से अधिक था। तथापि, पहली हरित क्रांति से कुछ सीखने की जरूरत है। रसायनिक उर्वरक का अत्यधिक प्रयोग दीर्घावधि में अव्यवहार्य हो जाता है क्योंकि धीरे-धीरे उत्पादकता घटती जाती है। अच्छी उपज वाले बीज केवल खाद्यान्नों के लिए प्रयोग किए गए थे। इस प्रकार इस क्रांति का प्रभाव भारत की कुल कृषि योग्य भूमि की केवल कुल ही प्रतिशत तक रहा।

नोबल पुरस्कार विजेता तथा हरित क्रांति के जनक, डॉ. नोर्मन बरलोग ने 1970 में कहा था कि ‘‘भोजन एक ऐसा विषय है जिसे दुनिया भर के अधिकतर नेता यह मानकर चलते हैं कि यह तो उपलब्ध है ही जबकि यह तथ्य है कि दुनिया की आधे से अधिक आबादी भूखी है।’’ यह सही है कि भारत, अपनी सामाजिक-आर्थिक बाध्यताओं के चलते खाद्य सुरक्षा के प्रति कभी भी आत्मसंतुष्ट नहीं रहा। वास्तव मं इस बात की समझ बढ़ती रही है कि कृषि और संबंधित सेक्टरों में उच्च विकास देश में ग्रामीण विकास के लिए उत्प्रेरक का कार्य करेगा। इस प्रकार, एक दूसरी हरित क्रांति समय की जरूरत है।

देवियो और सज्जनो,

मैं यह मानता हूं कि ऐसे कई क्षेत्र हैं जिन पर हमें ध्यान देना होगा। परंतु हमें कृषि में उत्पादकता को बढ़ाने को अन्य क्षेत्रों के मुकाबले कम महत्त्व नहीं देना है। ग्यारहवीं योजना अवधि में कृषि विकास, कृषि उपज के बेहतर मूल्य के चलते भी हुआ। परंतु बारहवीं योजना अवधि में इस परिदृश्य में बदलाव आया है क्योंकि प्रमुख फसलों की मांग में कमी दर्शाई गई है। बारहवीं योजना की 4 प्रतिशत प्रतिवर्ष की योजनागत विकास दर को प्राप्त करने के लिए उत्पादकता बढ़ाने पर जोर दिया जाना चाहिए। उच्च उत्पादकता वाली फसलों को प्राथमिकता देना एक ऐसी कार्ययोजना हो सकती है जिसे अधिक जोरदार ढंग से प्रोत्साहित करने की जरूरत है। हमें बीज प्रतिस्थापन दर पर जोर देना चाहिए, इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अधिक उपज देने वाले शंकर बीजों का प्रयोग करें, जल प्रबंधन में सुधार करें तथा उर्वरकों तथा कीटनाशकों का संतुलित प्रयोग करें।

भारत में, खेती की जोतें छोटी-छोटी हैं। 2 हेक्टेयर से छोटी जोतें समग्र जोतों की 83 प्रतिशत हैं और 41 प्रतिशत क्षेत्र पर फैली हैं। इसके कारण, हमारे लिए यह अनिवार्य हो गया है कि हम उत्पादकता बढ़ाने के लिए नवान्वेषी स्कीमें अपनाएं। विश्व की उन्नत खाद्य आपूर्ति प्रणालियों के संदर्भ में, यह अच्छा होगा कि बड़े स्तर पर खेत-संयोजकता स्थापित करने पर विचार किया जाए। लेकिन जरूरी यह है कि छोटे खेतों की उत्पादकता बढ़ाने के लिए आर्थिक रूप से व्यवहार्य समाधन निकालने के लिए अनुसंधान तथा प्रौद्योगिकी विकास के माध्यम से नवान्वेषण की जरूरत है।

किसान कृषि मूल्य शृंखला में सबसे महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं। इसलिए जरूरी है कि मौसम तथा बाजार की अनिश्चितताओं से पर्याप्त रूप से उनका बचाव सुनिश्चित किया जाए। प्राकृतिक आपदाओं, कीटों तथा बीमारियों के कारण फसल खराब होने के खतरे के प्रबंधन के लिए इस तरह के विपदाग्रस्त किसानों को वित्तीय सहायता देने के लिए 1999-2000 में एक राष्ट्रीय कृषि बीमा स्कीम शुरू की गई थी। यदि जोखिम को नियंत्रण करने के लिए रोकथाम बेहतर उपाय है तो मौसम की पूर्व जानकारी के लिए उपग्रह संचार पर अधिक निर्भरता तथा इस तहर की सूचना का बेहतर प्रसार और भी अधिक जरूरी होगा।

यह और भी महत्त्वपूर्ण है कि फसल की कटाई के बाद की क्षति पर नियंत्रण किया जाए क्योंकि इससे किसानों की बाजार तक पहुंच में सुधार होगा और वे अपने उत्पादों का बेहतर मूल्य प्राप्त कर पाएंगे। कृषि प्रसार कार्यक्रम की पहुंच बढ़ाने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी के कारगर प्रयोग से न केवल कृषि, बेहरत परिपाटियों तथा जानकारी के प्रसार में सहायता मिलेगी बल्कि इससे देश में इस प्रकार की जानकारी का डाटाबेस तैयार करने में भी सहायता मिलेगी।

देवियो और सज्जनो,

वित्त मंत्री के रूप में मैंने 2010-11 के केंद्रीय बजट में चार सूत्री कार्यक्रम कार्ययोजना का खाका तैयार किया था। इसके तहत देश के पूर्वी क्षेत्र में हरित क्रांति का विस्तार, घटिया भण्डारण सुविधाओं के कारण बहुत अधिक अन्न की क्षति को कम करना, किसानों को ऋण की उपलब्धता बढ़ाना तथा खाद्य प्रसंस्करण सेक्टर को और बढ़ावा देने की परिकल्पना की गई थी।

इन क्षेत्रों में प्रगति दिखाई देने लगी है। पूर्वी भारत के राज्यों में खरीफ 2011 के दौरान धान की फसल में 7 मिलियन टन तक की बढ़ी हुई उपज प्राप्त हुई है। इस उपलब्धि की अंतरराष्ट्रीय धान अनुसंधान संस्थान जैसे संगठनों ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा की है।

देश में अतिरिक्त खाद्यान्न भंडारण क्षमता के निर्माण के लिए सरकार ने ठोस कदम उठाए हैं। उदाहरण के लिए, आधुनिक साइलोस के रूप में 2 मिलियन टन की अतिरिक्त भंडारण क्षमता के सृजन को पहले ही अनुमोदन दे दिया गया है। इसके अलावा, लगभग 15 मिलियन टन की भंडारण क्षमता को निजी उद्यमिता तथा भंडारण निगमों के माध्यम से सृजित किया जा रहा है।

समय पर किसानों को वहनीय ऋण उपलब्ध कराने के लिए एक के बाद एक केंद्रीय बजट में कृषि ऋण की उपलब्धता का लक्ष्य बढ़ाया गया है, जो 2010-11 में 375000 करोड़ रुपए से बढ़कर 2012-13 में 575000 करोड़ हो गया।

खाद्य संस्करण सेक्टर को विकसित करने के लिए ग्यारहवीं योजना में शुरू की गई मेगा फूड पार्क स्कीम द्वारा मजबूत पश्च और अग्र संयोजन के साथ खेती के लिए अनुकूल अत्यंत उन्नत अवसंरचना सृजित की जा रही है।

इस प्रकार कृषि सेक्टर में अगली पीढ़ी की क्रांति के कुछ तत्त्व पहले ही सामने आने लगे हैं। परंतु मैं कृषि में एक ऐसी दूसरी हरित क्रांति की परिकल्पना करना चाहूंगा जो कि अधिक सर्वांगीण तथा विस्तृत हो। इस तरह की पहल ग्रामीण अवसंरचना, मानवीय विकास तथा पारिस्थितिकी और पर्यावरण के प्रति अधिक चेतना के साथ होनी चाहिए। हमारे आगे जो विशाल कार्य है, उसे देखते हुए यह जरूरी है कि सरकार नवान्वेषी ढांचों का निर्माण करके सही साझीदारी शुरू करे जिनसे इस क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहन मिले।

मैं समझता हूं कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान घट रहा है और अब यह सेवा तथा उद्योग सेक्टरों से कम है परंतु मैं आप सबसे आग्रह करूंगा कि आप इस सेक्टर को आनुपातिक महत्त्व देने के पक्ष में दिए जाने वाले कुछ तर्कों के बहकावे से बचें। इससे अधिक गलत और कुछ नहीं हो सकता। कृषि को सकल घरेलू उत्पाद में इसके अनुपात के अनुसार महत्त्व देना उतना ही भ्रांतिपूर्ण हो सकता है जितना कि आदमी के हृदय को उसके शरीर के अनुपात में महत्त्व देना।

कृषि सेक्टर का समाज के प्राय: सभी पहलुओं से संबंध निर्विवाद है। इसके विकास से बहुत जरूरी सामािजक तथा आर्थिक बदलाव प्राप्त हो सकता है जिसके बिना दूसरे क्षेत्रों में आर्थिक विकास तथा कुल-मिलाकर देश विकास अपनी सार्थकता खो सकता है।

मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन से कृषि क्षेत्र के सामने मौजूद समस्याओं का व्यावहारिक हल निकलेगा। मैं इस सम्मेलन की सफलता की कामना करता हूं तथा आयोजकों को इस सम्मेलन के आयोजन के लिए महत्त्वपूर्ण पहल करने के लिए बधाई देता हूं।

जय हिंद!