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न्यायमूर्ति पी एन भागवती की पुस्तक ‘माय ट्रायस्ट विद जस्टिस’ के विमोचन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

राष्ट्रपति भवन, ऑडिटोरियम, नई दिल्ली : 12.12.2012



देवियो और सज्जनो,

मुझे इस अवसर पर यहां उपस्थित होकर बहुत प्रसन्नता हो रही है। आज हम केवल एक पुस्तक के विमोचन के लिए ही उपस्थित नही हुए हैं बल्कि एक ऐसे लब्धप्रतिष्ठ न्यायाधीश, मानववादी और विधिवेत्ता के जीवन की उपलब्धियों को मानने के लिए भी इकट्ठा हुए हैं जिसने एक बेहतर भारत के निर्माण के लिए महती योगदान दिया है। कुछ व्यक्तियों का जीवन लाखों लोगों को प्रेरणा देता है। उनका जीवन ऐसा होता है कि जो भी उनके संपर्क में आता है वही उनसे प्रभावित होता है और उच्च चेतना की ओर अग्रसर हो जाता है। न्यायमूर्ति पी एन भगवती का जीवन भी एक ऐसा ही जीवन है और ‘माय ट्रायस्ट विद जस्टिस’ उस जीवन की एक विनम्र अभिव्यक्ति है।

जस्टिस पी एन भगवती एक महान न्यायविद् से कहीं अधिक हैं, वह एक असाधारण न्यायाधीश तथा विश्व भर में मानवाधिकारों के दूत हैं। वह एक ऐसे मानववादी हैं जिनका हृदय लाखों उपेक्षित तथा भुलाए हुए लोगों के लिए धड़कता है, वह न्याय के संदेशवाहक हैं, तथा ऐसे क्रांतिकारी हैं जिसने भारत के संविधान के शब्दों को, अन्याय के विरुद्ध लड़ाई के लिए कमजोरों के हथियार के रूप में तब्दीली कर दिया।

न्यायमूर्ति भगवती एक न्यायिक राजनेता हैं और सही मायने में वह जनता के और जनता के लिए न्यायाधीश हैं। चेतना से वे एक मानववादी हैं और वे न्यायमूर्ति वी आर कृष्ण अय्यर तथा न्यायमूर्ति वाय वी चंद्रचूड़ के साथ भारतीय न्यायापालिका को कमजोरों के स्वैच्छिक रक्षक के रूप में तब्दील करने के लिए जिम्मेदार हैं।

न्यायमूर्ति भगवती एक ऐसे व्यक्तित्व का जीता-जागता प्रमाण हैं जो यह मानता है कि सच्ची न्यायिक भूमिका तकनीकी न्यायनिर्णयन की सीमाओं से कहीं अधिक है। न्यायमूर्ति भगवती भारत में जनहित वादों के अग्रदूत हैं, कानूनी सहायता के अधिकार के प्रवर्त्तक हैं और लोक अदालतों के प्रणेता हैं। उन्होंने कानून को मानवतावादी बनाने के लिए न्यायालय को जन-आंदोलन के स्थान के रूप में परिवर्तित कर दिया। न्यायमूर्ति भगवती इस बात के प्रतीक हैं कि किस प्रकार एक न्यायधीश ऐसे लाखों वंचित भारतीयों को न्याय प्रदान करने के कार्य में सहयोग दे सकता है जो कि बहुत लंबे समय से न्याय पाने की इंतजार में खड़े हैं।

देवियो और सज्जनो,

न्यायमूर्ति भगवती ने न्यायपालिका के उच्च पदों पर 26 वर्षों का लम्बा कार्यकाल बिताया, जिसमें से 13 वर्ष उन्होंने गुजरात उच्च न्यायालय में न्यायाधीश और उसके बाद इसके मुख्य न्यायाधीश के रूप में तथा 13 वर्ष उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश तथा बाद में मुख्य न्यायाधीश के रूप में बिताए हैं। न्याय प्रदान प्रणाली में सुधार के निरंतर प्रयास, उनके कार्यकाल की विशेषता रही तथा उन्होंने अपने बहुत से निर्णयों और उद्घोषणाओं के माध्यम से अपनी राय दी, जिनमें से बहुत से निर्णय ऐतिहासिक प्रकृति के हैं।

न्यायमूति भगवती के निर्णयों से निर्धनों को अधिक सुगमता से न्याय प्राप्त करने में सहायता मिला। उनके नेतृत्व में ‘लोकस स्टैन्डाई’ के सामान्य विधिक सिद्धांत को उच्चतम न्यायालय ने विस्तार दिया और यह व्यवस्था दी कि यदि कोई ऐसा व्यक्ति अथवा व्यक्तियों का ऐसा वर्ग, जिसे कोई विधिक अन्याय या क्षति पहुंची है पंरतु निर्धनता, अशक्तता अथवा सामाजिक अथवा आर्थिक रूप से सक्षम होने के कारण वह न्यायालय में नहीं आ पाता, तो कोई भी सदाशयी सामाजिक संघर्ष समूह अथवा जनता का कोई सदस्य उच्चतम न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय में न्यायिक उपचार की मांग करते हुए वाद दायर कर सकता है। इसी उद्देश्य के समर्थन में, उच्चतम न्यायालय ने ‘एपिस्टोलरी जूरिसडिक्शन’ की व्यवस्था भी शुरू की और वंचित, दुखी व्यक्तियों के वर्ग की ओर से न्याय प्राप्त करने हेतु न्यायालय जाने के लिए एक याचिका के बजाय केवल एक पत्र अथवा पोस्ट कार्ड के प्रेषण को अनुमति दी। उनकी बहुत से न्यायिक उद्घोषणाओं से असंख्य बंधक मजदूरों को बंधन से मुक्ति मिली, भूमि से बेदखल लोगों की भूमि वापस मिली तथा ऐसे लोगों के जीवन को सम्मान और सार्थकता प्राप्त हुई जो एक समाज के हाशिये पर रह रहे थे।

न्यायमूर्ति भगवती ने एक विधिक सहायता अवसंचना खड़ी करने का भी प्रयास किया, जिसने संविधान के अनुच्छेद 39ए को सार्थकता प्रदान की। वे भारत के मुख्य न्यायाधीश रहने के दौरान विधिक सहायता संगठन के भी अध्यक्ष रहे। निशुल्क कानूनी सहायता की दिशा में उनके प्रयासों से उनकी सेवानिवृत्ति के बाद, विधिक सेवा प्राधिकारी अधिनियम 1987 के अधिनियमन का मार्ग प्रशस्त हुआ।

न्यायमूर्ति भगवती ने जिन न्यायिक नवान्वेषणों की शरुआत की वह पंरपरागत एंग्लो सेक्सन विधिशास्त्र से अलग हटकर थे। तथापि, वह हमारे संविधान की सच्ची भावना का प्रतिबिंबन थे और उन्होंने भारतीय न्यायापालिका को वंचितों के लिए सामाजिक-आर्थिक न्याय के मजबूत हथियार के रूप में परिवर्तित कर दिया। यह न्यायिक सर्जनात्मकता वैश्विक विधिशास्त्र में एक अभिनव नवान्वेषण बन गया तथा स्वतंत्र न्यायापालिका वाले सभी विकासशील देशों के लिए इसकी प्रासंगिकता चिरस्थाई हो गई।

देवियो और सज्जनो,

किसी व्यक्ति की प्रगति और विकास में पारिवारिक मूल्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करते हैं। जीवन की शुरुआत से ही, उनके माता-पिता ने उनमें गहरे मानव मूल्य, सभी धर्मों के प्रति आदर, यह विश्वास कि सभी मनुष्य ईश्वर का स्वरूप हैं तथा मनुष्य मूलत: अच्छा होता है जैसे मूल्य उनमें भर दिए थे। उनकी पत्नी श्रीमती प्रभावती, जो इस समय यहां मौजूद हैं, उनके लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत रही हैं। उनके सहोदर तथा बच्चे भी भावनात्मक समर्थन तथा प्रेरणा प्रदान करते हुए उनको सहयोग देते रहे हैं। उनके व्यक्तित्व को ढालने में परिवार तथा मूल्यों की भूमिका का उल्लेख इस पुस्तक के शुरुआती अध्याय में अच्छी तरह किया गया है।

न्यायमूर्ति भगवती ने 26 वर्ष पहले अपनी सेवानिवृत्ति के बाद अंतरराष्ट्रीय मंच पर मानवाधिकार के हिमायती के रूप में एक नई पारी की शुरुआत की। उनके विशाल अनुभव, विशेषज्ञता तथा सख्शियत का सदुपयोग संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति में, जहां वह सोलह वर्ष से अधिक समय तक कार्यरत रहे और अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन में हुआ।

अपनी पुस्तक में न्यायमूर्ति भगवती ने जो विचार व्यक्त किए हैं वह एक प्रभावशाली और संवेदनशील व्यक्ति के जीवन का रहस्योद्घाटन करते हैं। न्यायमूर्ति भगवती 10 दिन बाद 91 वर्ष के हो जाएंगे। मैं आने वाले वर्षों में उनके स्वास्थ्य और खुशहाली की कामना करता हूं।

न्यायमूर्ति भगवती द्वारा अपने संस्मणों को पुस्तक के रूप में दर्ज करने के लिए हमें उनका आभारी रहना चाहिए। मुझे विश्वास है कि ‘माय ट्रायस्ट विद जस्टिस’ शीर्षक की यह पुस्तक न केवल विधि के छात्रों, अधिवक्ताओं तथा न्यायाधीशों के लिए, बल्कि ऐसे आम पाठकों के लिए भी प्रेरणा का स्रोत होगी जो कि देश में सामाजिक न्याय के बारे में चिंता करते हैं।

यह पुस्तक उस हर एक भारतीय के लिए बहुमूल्य उपहार होगा जो कि दुनिया में बदलाव लाना चाहते हैं तथा जो और अधिक न्यायपूर्ण विश्व के लिए प्रयासरत हैं।

धन्यवाद,

जय हिंद!