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नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला-2014 के उद्घाटन के अवसर पर, भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

प्रगति मैदान, नई दिल्ली : 15.02.2014



देवियो और सज्जनो,

मुझे नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला-2014 का उद्घाटन करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है।

इतना विशाल अंतरराष्ट्रीय पुस्तक मेला भारत के उदार, लोकतांत्रिक, बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक तथा पंथनिरपेक्ष समाज का बेहतरीन नमूना है, जहां प्रतिस्पर्धी विचारों और विचारधाराओं को समान महत्त्व दिया जाता है। ये मूल्य भारत की आत्मा हैं। हमें इन आदर्शों को संरक्षित, सुरक्षित, प्रोत्साहित तथा पोषित करने के लिए हर संभव प्रयास करने चाहिए।

भारत की बहुलता तथा सामाजिक, सांस्कृतिक, भाषायी और धार्मिक विविधता हमारी सबसे बड़ी ताकत है और प्रत्येक भारतीय के लिए प्रेरणा के बहुल स्रोत हैं। हमें असहिष्णुता, पूर्वाग्रह और घृणा को अस्वीकार करने में कोई नरमी नहीं दिखानी चाहिए। ऐसे पुस्तक मेलों से हमें यह याद आना चाहिए कि हमारे इतिहास तथा परंपराओं में सदैव ‘तार्किक’ नागरिक को तरजीह दी गई है न कि ‘असहिष्णु’ नागरिक को। हमारे देश में सदियों से विभिन्न नजरियों, विचारों तथा दर्शनों ने शांतिपूर्वक एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा की है तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारे संविधान में गारंटी प्रदत्तसबसे महत्पूर्ण मौलिक अधिकार है।

मित्रो,

1972 में आरंभ हुए नई दिल्ली पुस्तक मेले ने सराहनीय रूप से चार से ज्यादा दशकों से एक सांस्कृतिक तथा व्यापार केंद्र बनने की दोहरी भूमिका निभाई है। यह एक महत्वपूर्ण प्रयास है जो पढ़ने की आदत का विस्तार करने में मदद करता है तथा हमारे समाज में एक पुस्तक संस्कृति पैदा करने में योगदान देता है। पढ़ने से न केवल हमारा ज्ञान बढ़ता है बल्कि हमें सामाजिक रूप से जुड़ने में भी सहायता मिलती है। पुस्तकें पीढ़ियों का ज्ञान आगे ले जाती हैं। पढ़ने से विचारों का विस्तार होता है, कल्पना को प्रोत्साहन मिलता है और मानसिक क्षितिज व्यापक होता है।

मुझे खुशी है कि इस वर्ष का विषय ‘कथासागर : बाल साहित्य उत्सव’ है। यह कहा जाता है कि बच्चे साहित्य के सबसे उम्दा पाठक होते हैं क्योंकि उनके पास दिखावा करने की कोई वजह नहीं है। हमारी लोक और मौखिक कथावाचन परंपराओं, पंचतंत्र, आख्यानों, पुराणों, जातक कथाओं आदि में बच्चों के लिए लिखे गए साहित्य की दीर्घ और समृद्ध प्रथा रही है। रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, अवनींद्रनाथ टैगोर और सुकुमार राय जैसी साहित्यिक विभूतियों ने बच्चों के लिए लिखा है।

कोई भी मानवीय समाज तब तक अपने संपूर्ण आयामों में विकसित नहीं हो सकता, जब तक वह अपने बच्चों और युवा पाठकों के लिए उपयोगी साहित्य की रचना नहीं करता है। मैं लेखकों, प्रकाशकों और सरकार से आग्रह करता हूं कि वे बाल साहित्य को बढ़ावा देने के लिए हर संभव प्रयास करें। मैं अभिभावकों और शिक्षकों से भी आग्रह करता हूं कि वे बच्चों में छोटी उम्र से ही पढ़ने की आदत डालें। बच्चों में पढ़ने की आदत का समावेश करने से यह सुनिश्चित हो पाएगा कि यह एक ऐसा कौशल बने जो पूरे जीवन भर उन्हें संबल प्रदान करता रहे।

मुझे प्रसन्नता है कि पोलैंड इस वर्ष का अतिथि देश है। पोलैंड एक ऐसा देश और एक ऐसी संस्कृति है जिससे भारत का लंबे समय से घनिष्ठ संबंध रहा है। मैं समझता हूं कि मेले में पोलिश कृतियां दर्शाई जाएंगी और यह भारतीय सहयोगियों और जनता के साथ संवाद के लिए पोलिश लेखकों, आलोचकों, चित्रकारों, छायाचित्रकारों, प्रकाशकों आदि के लिए एक स्थान उपलब्ध करवा रहा है। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास ने पोलिश संस्थान के साथ मिलकर प्रख्यात पोलिश संगीतकार, फ्रेडरिक चोपिन के बचपन पर अंग्रेजी में छोटा चोपिन शीर्षक से बच्चों की एक सचित्र पुस्तक प्रकाशित की है। मैं इस पहल के लिए उन्हें बधाई देता हूं और आशा करता हूं कि अतिथि देश के रूप में पोलैण्ड की भागीदारी से इस वर्ष ऐसे और अधिक साहित्यिक आदान-प्रदान संभव हो पाएंगे।

अधिकाधिक लोग यह मानने लगे हैं कि इंटरनेट और अन्य संचार सुविधाओं के आने से पुस्तकें हमारे सांस्कृतिक और सामाजिक जीवन में पिछड़ जाएंगी। मैं इस नजरिए से सहमत नहीं हूं इसका अस्थायी प्रभाव पड़ सकता है। मेरा मानना है कि पुस्तकें और मुद्रित सामग्री पढ़ने की आदत मानव सभ्यता में रची बसी है। कोई भी प्रौद्योगिकीय उन्नति इस आदत का स्थान नहीं ले सकती है। विविध आवश्यकताओं और आकांक्षाओं वाले भारत जैसे विकासशील देश के लिए छपी हुई पुस्तकें और डिजीटल मीडिया एक दूसरे के पूरक हैं, न कि प्रतियोगी।

आज भारत विश्व के छह सबसे अधिक प्रकाशन वाले देशों में से एक है। अंग्रेजी पुस्तकों के मामले में, यह अमरीका और यूनाइटेड किंग्डम के बाद तीसरा विशालतम देश है। भारत में प्रकाशित की जा रही पुस्तकों की संख्या प्रतिवर्ष 25-30 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। जहां इससे जनता में पुस्तकों की बढ़ती मांग का पता चलता है इसके साथ ही इससे एक कहानी भी प्रदर्शित होती है जो एक ज्ञानसंपन्न अर्थव्यवस्था के रूप में भारत के विकास के साथ अटूट रूप से जुड़ी हुई है। हमारे प्राचीनतम ग्रंथों में बताया गया है कि समाज का ढांचा ज्ञान के स्तंभों के आसपास स्थापित होना चाहिए। हमारी चुनौती ज्ञान को एक लोकतांत्रिक ताकत में बदलना है और इसे अपने देश के प्रत्येक कोने तक पहुंचाना है। हमारे देश में ज्ञान की एक गहन पिपासा है। इस प्रकार, एक राष्ट्र के तौर पर हमारा ध्येय ‘ज्ञान के लिए सब और सबके लिए ज्ञान’ होना चाहिए।

मैं आप सभी का, विशेषकर विशिष्ट विदेशी भागीदारों का इस अद्भुत आयोजन में स्वागत करता हूं और मेले की भव्य सफलता की कामना करता हूं। पुस्तक मेले ऐसे आयोजन होते हैं जो प्रतिभावान मस्तिष्क को समृद्ध होने के लिए गतिविधियों का एक मंच उपलब्ध करवाते हैं, नए विचारों को प्रेरित करते हैं और साथ ही व्यावसायिक अवसर प्रदान करते हैं। मैं नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेले 2014 के उद्घाटन की घोषणा करता हूं। आप सभी का पठन सुखद रहे।

धन्यवाद,

जय हिंद!