उत्तर भारत के मुख्यमंत्रियों की संगोष्ठी—‘रिफ्यूलिंग ग्रोथ’ के उद्घाटन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
नई दिल्ली : 15.12.2012
मुझे आज पीएचडी चैम्बर ऑफ कामर्स एवं इंडस्ट्री द्वारा आयोजित उत्तर भारत के मुख्यमंत्रियों की संगोष्ठी में उपस्थित होकर बहुत खुशी हो रही है। मुझे देश के कुछ सबसे बड़े राज्यों का संचालन करने वाले राजनीतिज्ञों और भारतीय उद्योग के मुखियाओं के
साथ अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हुए तथा हमारे लिए तात्कालिक महत्त्व के और अत्यंत प्रासंगिक मुद्दे पर चर्चा करते हुए बहुत प्रसन्नता हो रही है। सौ वर्षों से भी अधिक की अवधि के अपने इतिहास के दौरान पीएचडी चैम्बर ने देश की प्रगति के लिए सरकार एवं उद्योग के
बीच तालमेल स्थापित करने का प्रयास किया है। मैं इस पहल के लिए चैम्बर को बधाई देता हूं।
भारत आज विश्व में सबसे तेजी से प्रगतिशील देशों में से है। अस्सी के दशक के दौरान जो दशकीय विकास दर 1.9 प्रतिशत थी, वह पिछले दशक में बढ़कर 7.3 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। पिछले दो दशकों के दौरान विश्व सकल घरेलू उत्पाद में भारत की विकास दर दो गुना हो गई है और वर्ष 1991 में जो 1.2 प्रतिशत थी, वह 2011 में 2.4 प्रतिशत हो गई। यह खरीद शक्ति समता के आधार पर इस वर्ष विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है।
अत: यह, हमारे लिए विकास की इस घटी हुई दर को उलटकर इसे 8 से 9 प्रतिशत की दर, जोकि पिछले दशक के अधिकांश वर्षों के दौरान रही है, तक पहुंचाने की सामूहिक चुनौती है। मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि विकास, निवेश की दर तथा पूंजी के दक्षतापूर्ण उपयोग पर निर्भर करता है। वर्ष 2003-04 के बाद तेज आर्थिक विकास के साथ ही निवेश दर में भी बढ़ोत्तरी हुई। परंतु वर्ष 2007-08 में उच्चतम बिंदु पर पहुंचने के बाद निवेश दर में गिरावट आई है और इसके लिए हमें निवेश के लिए अपेक्षित परिवेश तैयार करना होगा।
देवियो और सज्जनो,
विनिर्माण सेक्टर देश में नौकरियों के सृजन के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपादान है। इसलिए, इस सेक्टर का विकास न केवल समग्र अर्थव्यवस्था के विकास के लिए बल्कि रोजगार सृजन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। विनिर्माण सेक्टर में जो विकास दर वर्ष 2009-10 में 9.7 प्रतिशत तथा वर्ष 2010-11 में 7.6 प्रतिशत थी, वह वर्ष 2011-12 में घटकर 2.5 प्रतिशत रह गई। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण का हिस्सा लगभग 16 प्रतिशत है, जो कि अस्सी के दशक से इसी स्तर पर है और यह थाईलैंड, दक्षिण कोरिया, चीन तथा मलेशिया जैसी एशिया की समतुल्य अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले बहुत नीचे है जहां इसका हिस्सा 25 से 34 प्रतिशत के बीच है।
हमें जनसंख्या की बहुलता का लाभ प्राप्त है। भारत की जनसंख्या की औसत आयु 30 वर्ष से कम है और 60 प्रतिशत से अधिक लोग कामकाजी आयु के हैं। इससे हमें भावी विकास को दिशा देने का एक अनोखा अवसर मिला है। परंतु इससे हमारे सामने वर्ष 2025 तक 220 मिलियन नौकरियां सृजित करने की गंभीर चुनौती भी खड़ी हुई है।
एक वर्ष पहले घोषित राष्ट्रीय विनिर्माण नीति में इस मौके का लाभ उठाकर विनिर्माण सेक्टर में विकास दर को बढ़ाकर मध्यावधि में 12 से 14 प्रतिशत विकास दर करने का लक्ष्य रखा गया है। अगले दशक में देश के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण का हिस्सा बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक करने की परिकल्पना की गई है।
इस सेक्टर की प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने के लिए बहुत से उपचारात्मक उपाय जरूरी हैं। ‘डूईंग बिजनेस’ पर विश्व बैंक के वार्षिक सर्वेक्षणों में, जो व्यवसाय विनियंत्रणों के दस क्षेत्रों में अर्थव्यवस्थाओं का सर्वेक्षण करती है, वर्ष 2012 में कुल सर्वेक्षण किए गए 185 देशों में से भारत को 132वां स्थान दिया गया है। जहां भारत को ऋण प्राप्त करने तथा निवेशकों की सुरक्षा के मामले में बेहतर स्थान दिया गया है वहीं व्यवसाय प्रारंभ करने, निर्माण अनुज्ञा संबंधी मामलों, संविदा को लागू करने तथा दिवालिया के मामलों को सुलझाने में इसको अच्छा स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। हो सकता है कि यह रैंकिंग जमीनी हकीकत का सही आकलन न हो परंतु ये इस बात का प्रतीक है कि हमें बदलाव लाना होगा। इस प्रकार हमारा जोर कमजोर क्षेत्रों को मजबूत करने पर होना चाहिए जिससे विनिर्माण सेक्टर को अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता के मामले में दुनिया के सर्वोत्तम सेक्टर के समान मापदंड दिए जा सकें।
अनुसंधान और विकास, नवान्वेषण को बढ़ावा देने के बुनियादी कारक होते हैं। हमारे देश में अनुसंधान की संस्कृति को बढ़ावा देने की जरूरत है। वर्ष 2010 में भारतीयों द्वारा केवल 6000 पेटेंट आवेदन प्रस्तुत किए गए थे और यह विश्व में प्रस्तुत आवेदनों का केवल 0.30 प्रतिशत है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.9 प्रतिशत अनुसंधान और विकास पर खर्च करता है जबकि चीन 1.2, यू.के. 1.7 प्रतिशत तथा इजरायल 4.3 प्रतिशत खर्च करता है। विनिर्माण में विश्व स्तर पर प्रासंगिक बने रहने के लिए हमें इस क्षेत्र में खर्च बढ़ाना होगा। जापान, अमरीका तथा दक्षिण कोरिया जैसे देशों में निजी क्षेत्र, औद्योगिक अनुसंधान और विकास पर अधिकांश धन व्यय करता है। भारत में अनुसंधान एवं विकास पर निजी सेक्टर का हिस्सा केवल एक चौथाई है तथा इसमें तत्काल वृद्धि की जरूरत है।
अनुसंधान एवं विकास में सुधार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें शिक्षा में उत्कृष्टता केंद्रों के सृजन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। हमारे यहां बड़ी संख्या में इंजीनियरी तथा तकनीकी संस्थान मौजूद हैं। लेकिन कुछ को छोड़कर बाकी सबको सशक्त किए जाने की जरूरत है। सरकार विश्व बैंक की सहायता से ‘तकनीकी शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम’ आयोजित कर रही है, जिसके तहत 127 इंजीनियरी संस्थानों में वर्ष 2002 से 2009 के दौरान, प्रथम चरण में गुणवत्ता सुधार के लिए कार्य किया गया था। 190 इंजीनियरी संस्थानों में वर्ष 2010 से 2014 के दौरान यह कार्य दूसरे चरण में करने की परिकल्पना की गई है।
मुझे उम्मीद है कि अगले 10 से 15 वर्षों की अवधि में, स्पर्धात्मकता के सभी मापदंडों में सुधार के बाद, इस देश के विनिर्माण सेक्टर द्वारा आर्थिक विकास और रोजगार सृजन की दिशा में सार्थक योगदान दिया जाएगा।
देवियो और सज्जनो,
गरीबी उन्मूलन, समावेशी विकास को बढ़ावा देने, खाद्य सुरक्षा की सततता तथा रोजगार के अवसरों के सृजन के लिए कृषि सेक्टर में विकास जरूरी है। कृषि एवं संबंधित सेक्टरों में ग्यारहवीं योजना अवधि में औसत विकास दर 3.3 प्रतिशत थी और इसमें से 2011-12 में यह दर 2.8 प्रतिशत थी, जो कि योजना का अंतिम वर्ष है। समग्र आर्थिक दर में मौजूदा स्तरों से वृद्धि के लिए कृषि सेक्टर में और अधिक विकास अर्थात 4 प्रतिशत वार्षिक अपेक्षित होगा, जैसा कि बारहवीं योजनावधि में परिकल्पना की गई है।
कृषि उत्पादकता में सुधार, इस सेक्टर में विकास की गति तेज करने के लिए महत्त्वपूर्ण होगी। उत्पादकता बढ़ाने संबंधी विभिन्न उपायों जैसे कि अच्छी उपज देने वाली फसलों का विविधीकरण, बीजों में बदलाव की दर में सुधार, अच्छी उपज देने वाले शंकर बीजों का उपयोग, जल प्रबंधन संबंधी कामों में सुधार तथा उर्वरकों और कीटनाशकों के संतुलित प्रयोग पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। हमें अपने कृषि सेक्टर के प्रौद्योगिकी आधार को बढ़ाना होगा।
वित्त मंत्री के रूप में मैंने कृषि सेक्टर में विकास को प्रोत्साहन देने के लिए वर्ष 2010-11 के केंद्रीय बजट में चार सूत्री कार्ययोजना का खाका तैयार किया था। इस कार्य योजना में, देश के उत्तरी क्षेत्र में हरित क्रांति का प्रसार, भंडारण तथा मौजूदा खाद्य आपूर्ति शृंखला के संचालन के दौरान होने वाली बर्बादी को कम करना, किसानों को ऋण की उपलब्धता में सुधार करना तथा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को उन्नत अवसंरचना प्रदान करके प्रोत्साहन प्रदान करना, चार घटक शामिल थे। इन कार्ययोजनाओं से इस सेक्टर में सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए हैं तथा इससे दूसरी हरित क्रांति को आंरभ करने में सहायता मिलनी चाहिए।
सेवा सेक्टर हमारे देश की अर्थव्यवस्था का प्रमुख सेक्टर है जिसका हमारे सकल घरेलू उत्पाद में 60 प्रतिशत योगदान है। इस प्रकार, आर्थिक विकास में तेजी लाने की किसी भी कार्ययोजना में, वित्त एवं बैंकिंग, सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार जैसी महत्त्वपूर्ण सेवाओं के विकास में सहयोग देने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
यद्यपि सूचना प्रौद्योगिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवाओं में भारत का विश्व में महत्त्वपूर्ण स्थान है परंतु इसके वर्चस्व को नई उभरती अर्थव्यवस्थाओं द्वारा चुनौती दी जा रही है। इसलिए हमें इस सेक्टर की प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार करना होगा।
एक सुविकसित वित्तीय प्रणाली किसी भी परिपक्व अर्थव्यवस्था का प्रतीक होती है। हमारी नीतियों ने विभिन्न वित्तीय कारोबारियों के बीच प्रतिस्पर्धा के स्तर को ऊंचा किया है और इस प्रक्रिया में आम आदमी को लाभ पहुंचाया है। हमारे देश का वित्तीय सेक्टर सुविनियमित सेक्टरों में है। पिछले दिनों आई वैश्विक मंदी ने हमें इतना प्रभावित नहीं किया है जितना कि कई मजबूत अर्थव्यवस्थाओं को किया है। यह हमारे विनियमन की परिपक्वता का प्रतीक है। परंतु फिर भी इस सेक्टर की पूर्ण संभावना का उपयोग करने के लिए तथा तेजी से विकास और समावेशिता प्राप्त करने के लिए, बैंकिंग, पेंशन तथा बीमा क्षेत्र में और सुधारों की जरूरत है।
देवियो और सज्जनो, हमने अपने देश के लिए जिस ऊँचे आर्थिक विकास की परिकल्पना की है, वह तब निरर्थक रहेगी जब तक कि हम इसे हमारे समाज के निर्धन तबकों के लिए ठोस लाभ में परिणत नहीं करते। जब हमारी 30 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे रहती है और 26 प्रतिशत निरक्षर है, तब ‘समावेश’ हमारे लिए केवल एक नारा नहीं बल्कि अनिवार्य लक्ष्य है।
भारत की अर्थव्यवस्था इसके राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं का कुल योग है। बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राज्य राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और गुजरात, अर्थव्यवस्था की दृष्टि से पांच सबसे बड़े राज्य हैं और ये देश के सकल घरेलू उत्पाद मे करीब आधा का योगदान देते हैं। यद्यपि हममें से केवल एक राज्य देश के उत्तरी क्षेत्र में स्थित है परंतु देश के सकल घरेलू उत्पाद में उत्तरी राज्यों का हिस्सा लगभग 21.4 प्रतिशत है। इसलिए देश के उत्तरी भागों के राज्यों में विकास देश के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण है तथा यहां उपस्थित मुख्यमंत्रियों को इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।
आर्थिक रूप से पांच सबसे बड़े राज्यों में से केवल महाराष्ट्र और गुजरात ने वर्ष 2011-12 में 8 प्रतिशत की दर से प्रगति की। परंतु पिछले दो वर्षों के दौरान उन्होंने जो विकास का ऊंचा स्तर प्राप्त किया था, उसके मुकाबले इसमें कमी दिखाई देती है। उत्तरी भारत के राज्यों में से उत्तर प्रदेश और पंजाब ने वर्ष 2011-12 में देश के औसत विकास के मुकाबले कम दर पर प्रगति की है। इसमें बदलाव लाने की जरूरत है।
मुझे यह देखकर खुशी हो रही है कि बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ ने वर्ष 2011-12 में 10 प्रतिशत से ऊंचा विकास दर्ज किया है। वैश्विक तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में मंदी को देखते हुए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। मुझे उम्मीद है कि ये राज्य, और तेजी से नहीं तो कम से कम इसी गति से बढ़ते रहेंगे और देश के अन्य राज्य भी उनका अनुकरण करेंगे।
वास्तव में यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि इस संगोष्ठी में विभिन्न राज्यों से कई राजनेताओं को एक साझा मंच पर इकटठा किया गया है जिससे कि प्रगति की ओर भारत की यात्रा में सहयोग देने के लिए राज्यों के योगदान पर चर्चा की जा सके। मैं इस संगोष्ठी के सभी प्रतिभागियों को सार्थक तथा उपयोगी विचार-विमर्श के लिए शुभकामनाएं देता हूं जिसके परिणामस्वरूप राज्यों और देश के आर्थिक विकास में तेजी लाने के उपाय ढूंढ़े जा सकेंगे।
धन्यवाद।
भारत आज विश्व में सबसे तेजी से प्रगतिशील देशों में से है। अस्सी के दशक के दौरान जो दशकीय विकास दर 1.9 प्रतिशत थी, वह पिछले दशक में बढ़कर 7.3 प्रतिशत तक पहुंच गई थी। पिछले दो दशकों के दौरान विश्व सकल घरेलू उत्पाद में भारत की विकास दर दो गुना हो गई है और वर्ष 1991 में जो 1.2 प्रतिशत थी, वह 2011 में 2.4 प्रतिशत हो गई। यह खरीद शक्ति समता के आधार पर इस वर्ष विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है।
अत: यह, हमारे लिए विकास की इस घटी हुई दर को उलटकर इसे 8 से 9 प्रतिशत की दर, जोकि पिछले दशक के अधिकांश वर्षों के दौरान रही है, तक पहुंचाने की सामूहिक चुनौती है। मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि विकास, निवेश की दर तथा पूंजी के दक्षतापूर्ण उपयोग पर निर्भर करता है। वर्ष 2003-04 के बाद तेज आर्थिक विकास के साथ ही निवेश दर में भी बढ़ोत्तरी हुई। परंतु वर्ष 2007-08 में उच्चतम बिंदु पर पहुंचने के बाद निवेश दर में गिरावट आई है और इसके लिए हमें निवेश के लिए अपेक्षित परिवेश तैयार करना होगा।
देवियो और सज्जनो,
विनिर्माण सेक्टर देश में नौकरियों के सृजन के लिए एक महत्त्वपूर्ण उपादान है। इसलिए, इस सेक्टर का विकास न केवल समग्र अर्थव्यवस्था के विकास के लिए बल्कि रोजगार सृजन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है। विनिर्माण सेक्टर में जो विकास दर वर्ष 2009-10 में 9.7 प्रतिशत तथा वर्ष 2010-11 में 7.6 प्रतिशत थी, वह वर्ष 2011-12 में घटकर 2.5 प्रतिशत रह गई। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण का हिस्सा लगभग 16 प्रतिशत है, जो कि अस्सी के दशक से इसी स्तर पर है और यह थाईलैंड, दक्षिण कोरिया, चीन तथा मलेशिया जैसी एशिया की समतुल्य अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले बहुत नीचे है जहां इसका हिस्सा 25 से 34 प्रतिशत के बीच है।
हमें जनसंख्या की बहुलता का लाभ प्राप्त है। भारत की जनसंख्या की औसत आयु 30 वर्ष से कम है और 60 प्रतिशत से अधिक लोग कामकाजी आयु के हैं। इससे हमें भावी विकास को दिशा देने का एक अनोखा अवसर मिला है। परंतु इससे हमारे सामने वर्ष 2025 तक 220 मिलियन नौकरियां सृजित करने की गंभीर चुनौती भी खड़ी हुई है।
एक वर्ष पहले घोषित राष्ट्रीय विनिर्माण नीति में इस मौके का लाभ उठाकर विनिर्माण सेक्टर में विकास दर को बढ़ाकर मध्यावधि में 12 से 14 प्रतिशत विकास दर करने का लक्ष्य रखा गया है। अगले दशक में देश के सकल घरेलू उत्पाद में विनिर्माण का हिस्सा बढ़ाकर 25 प्रतिशत तक करने की परिकल्पना की गई है।
इस सेक्टर की प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने के लिए बहुत से उपचारात्मक उपाय जरूरी हैं। ‘डूईंग बिजनेस’ पर विश्व बैंक के वार्षिक सर्वेक्षणों में, जो व्यवसाय विनियंत्रणों के दस क्षेत्रों में अर्थव्यवस्थाओं का सर्वेक्षण करती है, वर्ष 2012 में कुल सर्वेक्षण किए गए 185 देशों में से भारत को 132वां स्थान दिया गया है। जहां भारत को ऋण प्राप्त करने तथा निवेशकों की सुरक्षा के मामले में बेहतर स्थान दिया गया है वहीं व्यवसाय प्रारंभ करने, निर्माण अनुज्ञा संबंधी मामलों, संविदा को लागू करने तथा दिवालिया के मामलों को सुलझाने में इसको अच्छा स्थान प्राप्त नहीं हुआ है। हो सकता है कि यह रैंकिंग जमीनी हकीकत का सही आकलन न हो परंतु ये इस बात का प्रतीक है कि हमें बदलाव लाना होगा। इस प्रकार हमारा जोर कमजोर क्षेत्रों को मजबूत करने पर होना चाहिए जिससे विनिर्माण सेक्टर को अपनी प्रतिस्पर्धात्मकता के मामले में दुनिया के सर्वोत्तम सेक्टर के समान मापदंड दिए जा सकें।
अनुसंधान और विकास, नवान्वेषण को बढ़ावा देने के बुनियादी कारक होते हैं। हमारे देश में अनुसंधान की संस्कृति को बढ़ावा देने की जरूरत है। वर्ष 2010 में भारतीयों द्वारा केवल 6000 पेटेंट आवेदन प्रस्तुत किए गए थे और यह विश्व में प्रस्तुत आवेदनों का केवल 0.30 प्रतिशत है। भारत अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.9 प्रतिशत अनुसंधान और विकास पर खर्च करता है जबकि चीन 1.2, यू.के. 1.7 प्रतिशत तथा इजरायल 4.3 प्रतिशत खर्च करता है। विनिर्माण में विश्व स्तर पर प्रासंगिक बने रहने के लिए हमें इस क्षेत्र में खर्च बढ़ाना होगा। जापान, अमरीका तथा दक्षिण कोरिया जैसे देशों में निजी क्षेत्र, औद्योगिक अनुसंधान और विकास पर अधिकांश धन व्यय करता है। भारत में अनुसंधान एवं विकास पर निजी सेक्टर का हिस्सा केवल एक चौथाई है तथा इसमें तत्काल वृद्धि की जरूरत है।
अनुसंधान एवं विकास में सुधार के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए हमें शिक्षा में उत्कृष्टता केंद्रों के सृजन पर ध्यान केंद्रित करना होगा। हमारे यहां बड़ी संख्या में इंजीनियरी तथा तकनीकी संस्थान मौजूद हैं। लेकिन कुछ को छोड़कर बाकी सबको सशक्त किए जाने की जरूरत है। सरकार विश्व बैंक की सहायता से ‘तकनीकी शिक्षा गुणवत्ता सुधार कार्यक्रम’ आयोजित कर रही है, जिसके तहत 127 इंजीनियरी संस्थानों में वर्ष 2002 से 2009 के दौरान, प्रथम चरण में गुणवत्ता सुधार के लिए कार्य किया गया था। 190 इंजीनियरी संस्थानों में वर्ष 2010 से 2014 के दौरान यह कार्य दूसरे चरण में करने की परिकल्पना की गई है।
मुझे उम्मीद है कि अगले 10 से 15 वर्षों की अवधि में, स्पर्धात्मकता के सभी मापदंडों में सुधार के बाद, इस देश के विनिर्माण सेक्टर द्वारा आर्थिक विकास और रोजगार सृजन की दिशा में सार्थक योगदान दिया जाएगा।
देवियो और सज्जनो,
गरीबी उन्मूलन, समावेशी विकास को बढ़ावा देने, खाद्य सुरक्षा की सततता तथा रोजगार के अवसरों के सृजन के लिए कृषि सेक्टर में विकास जरूरी है। कृषि एवं संबंधित सेक्टरों में ग्यारहवीं योजना अवधि में औसत विकास दर 3.3 प्रतिशत थी और इसमें से 2011-12 में यह दर 2.8 प्रतिशत थी, जो कि योजना का अंतिम वर्ष है। समग्र आर्थिक दर में मौजूदा स्तरों से वृद्धि के लिए कृषि सेक्टर में और अधिक विकास अर्थात 4 प्रतिशत वार्षिक अपेक्षित होगा, जैसा कि बारहवीं योजनावधि में परिकल्पना की गई है।
कृषि उत्पादकता में सुधार, इस सेक्टर में विकास की गति तेज करने के लिए महत्त्वपूर्ण होगी। उत्पादकता बढ़ाने संबंधी विभिन्न उपायों जैसे कि अच्छी उपज देने वाली फसलों का विविधीकरण, बीजों में बदलाव की दर में सुधार, अच्छी उपज देने वाले शंकर बीजों का उपयोग, जल प्रबंधन संबंधी कामों में सुधार तथा उर्वरकों और कीटनाशकों के संतुलित प्रयोग पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है। हमें अपने कृषि सेक्टर के प्रौद्योगिकी आधार को बढ़ाना होगा।
वित्त मंत्री के रूप में मैंने कृषि सेक्टर में विकास को प्रोत्साहन देने के लिए वर्ष 2010-11 के केंद्रीय बजट में चार सूत्री कार्ययोजना का खाका तैयार किया था। इस कार्य योजना में, देश के उत्तरी क्षेत्र में हरित क्रांति का प्रसार, भंडारण तथा मौजूदा खाद्य आपूर्ति शृंखला के संचालन के दौरान होने वाली बर्बादी को कम करना, किसानों को ऋण की उपलब्धता में सुधार करना तथा खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को उन्नत अवसंरचना प्रदान करके प्रोत्साहन प्रदान करना, चार घटक शामिल थे। इन कार्ययोजनाओं से इस सेक्टर में सकारात्मक परिणाम प्राप्त हुए हैं तथा इससे दूसरी हरित क्रांति को आंरभ करने में सहायता मिलनी चाहिए।
सेवा सेक्टर हमारे देश की अर्थव्यवस्था का प्रमुख सेक्टर है जिसका हमारे सकल घरेलू उत्पाद में 60 प्रतिशत योगदान है। इस प्रकार, आर्थिक विकास में तेजी लाने की किसी भी कार्ययोजना में, वित्त एवं बैंकिंग, सूचना प्रौद्योगिकी एवं संचार जैसी महत्त्वपूर्ण सेवाओं के विकास में सहयोग देने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
यद्यपि सूचना प्रौद्योगिकी एवं सूचना प्रौद्योगिकी आधारित सेवाओं में भारत का विश्व में महत्त्वपूर्ण स्थान है परंतु इसके वर्चस्व को नई उभरती अर्थव्यवस्थाओं द्वारा चुनौती दी जा रही है। इसलिए हमें इस सेक्टर की प्रतिस्पर्धात्मकता में सुधार करना होगा।
एक सुविकसित वित्तीय प्रणाली किसी भी परिपक्व अर्थव्यवस्था का प्रतीक होती है। हमारी नीतियों ने विभिन्न वित्तीय कारोबारियों के बीच प्रतिस्पर्धा के स्तर को ऊंचा किया है और इस प्रक्रिया में आम आदमी को लाभ पहुंचाया है। हमारे देश का वित्तीय सेक्टर सुविनियमित सेक्टरों में है। पिछले दिनों आई वैश्विक मंदी ने हमें इतना प्रभावित नहीं किया है जितना कि कई मजबूत अर्थव्यवस्थाओं को किया है। यह हमारे विनियमन की परिपक्वता का प्रतीक है। परंतु फिर भी इस सेक्टर की पूर्ण संभावना का उपयोग करने के लिए तथा तेजी से विकास और समावेशिता प्राप्त करने के लिए, बैंकिंग, पेंशन तथा बीमा क्षेत्र में और सुधारों की जरूरत है।
देवियो और सज्जनो, हमने अपने देश के लिए जिस ऊँचे आर्थिक विकास की परिकल्पना की है, वह तब निरर्थक रहेगी जब तक कि हम इसे हमारे समाज के निर्धन तबकों के लिए ठोस लाभ में परिणत नहीं करते। जब हमारी 30 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी की रेखा से नीचे रहती है और 26 प्रतिशत निरक्षर है, तब ‘समावेश’ हमारे लिए केवल एक नारा नहीं बल्कि अनिवार्य लक्ष्य है।
भारत की अर्थव्यवस्था इसके राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं का कुल योग है। बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राज्य राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्रगति के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और गुजरात, अर्थव्यवस्था की दृष्टि से पांच सबसे बड़े राज्य हैं और ये देश के सकल घरेलू उत्पाद मे करीब आधा का योगदान देते हैं। यद्यपि हममें से केवल एक राज्य देश के उत्तरी क्षेत्र में स्थित है परंतु देश के सकल घरेलू उत्पाद में उत्तरी राज्यों का हिस्सा लगभग 21.4 प्रतिशत है। इसलिए देश के उत्तरी भागों के राज्यों में विकास देश के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण है तथा यहां उपस्थित मुख्यमंत्रियों को इस चुनौती को स्वीकार करना चाहिए।
आर्थिक रूप से पांच सबसे बड़े राज्यों में से केवल महाराष्ट्र और गुजरात ने वर्ष 2011-12 में 8 प्रतिशत की दर से प्रगति की। परंतु पिछले दो वर्षों के दौरान उन्होंने जो विकास का ऊंचा स्तर प्राप्त किया था, उसके मुकाबले इसमें कमी दिखाई देती है। उत्तरी भारत के राज्यों में से उत्तर प्रदेश और पंजाब ने वर्ष 2011-12 में देश के औसत विकास के मुकाबले कम दर पर प्रगति की है। इसमें बदलाव लाने की जरूरत है।
मुझे यह देखकर खुशी हो रही है कि बड़ी अर्थव्यवस्था वाले राज्यों में दिल्ली, मध्य प्रदेश, बिहार और छत्तीसगढ़ ने वर्ष 2011-12 में 10 प्रतिशत से ऊंचा विकास दर्ज किया है। वैश्विक तथा राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में मंदी को देखते हुए यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है। मुझे उम्मीद है कि ये राज्य, और तेजी से नहीं तो कम से कम इसी गति से बढ़ते रहेंगे और देश के अन्य राज्य भी उनका अनुकरण करेंगे।
वास्तव में यह बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि इस संगोष्ठी में विभिन्न राज्यों से कई राजनेताओं को एक साझा मंच पर इकटठा किया गया है जिससे कि प्रगति की ओर भारत की यात्रा में सहयोग देने के लिए राज्यों के योगदान पर चर्चा की जा सके। मैं इस संगोष्ठी के सभी प्रतिभागियों को सार्थक तथा उपयोगी विचार-विमर्श के लिए शुभकामनाएं देता हूं जिसके परिणामस्वरूप राज्यों और देश के आर्थिक विकास में तेजी लाने के उपाय ढूंढ़े जा सकेंगे।
धन्यवाद।