मुझे, कलकत्ता उच्च न्यायालय के 150वें जयंती समारोहों के समापन समारोह के लिए आज कोलकाता आकर अत्यंत प्रसन्नता हो रही है।
यह स्मरणीय है कि देश के अन्य उच्च न्यायालयों या माननीय उच्चतम् न्यायालय से अलग कलकत्ता तथा तत्कालीन बॉम्बे और मद्रास में तीन प्रेसीडेंसी उच्च न्यायालय भारत के संविधान या किसी विधान मंडल के किसी अधिनियम के द्वारा अस्तित्व में नहीं आए थे। कलकत्ता के उच्च न्यायालय सहित तीनों प्रेसीडेंसी उच्च न्यायालय, एक औपनिवेशिक कानून, उच्च न्यायालय अधिनियम 1861 द्वारा प्राधिकृत महारानी द्वारा अपने हस्ताक्षर मैनुअल एवं प्रिवी सील के तहत जारी राजकीय घोषणा-पत्र, लैटर्स पेटेंट के जरिए अस्तित्व में आए थे। लैटर्स पेटेंट द्वारा कलकत्ता उच्च न्यायालय सहित उच्च न्यायालयों को तत्कालीन इंग्लैंड के उच्च न्यायालयों के समान शक्ति प्रदान की गई। इस प्रकार यह न्याय प्रदान कर सकते थे और ऐसी सभी रिटें जारी कर सकते थे जिनसे हम भारत के संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत परिचित हैं। 1950 से पहले, केवल एक सीमा थी कि वे राजस्व मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते थे। उच्च न्यायालय सरकार के विधिवत् संस्थापित मुकदमों में विशेष राहत के तौर पर अनिवार्य आदेश और निरोधक आदेश जारी कर सकते थे। वे प्राय: दो व्यक्तियों के बीच तथा व्यापक प्रभाव वाली अवधारणाओं और सामाजिक बुराइयों पर फैसले सुना सकते थे और प्राय: ऐसा करते थे।
स्वतंत्रता और भारत के संविधान के लागू होने के बाद, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने, हमारे नागरिकों को हमारे संविधान की प्रस्तावना में निहित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय दिलाने के भरसक प्रयास किए हैं। उच्च न्यायालय ने वर्षों के दौरान, सुदृढ़ परंपराओं व आदर्शों से युक्त उच्च मानदंड वाले संस्थान के रूप में ख्याति अर्जित की है। इसके न्यायाधीश और अधिवक्ता अपनी बौद्धिकता एवं कानूनी दक्षता के लिए सुविख्यात हैं। इस न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों ने हमारे देश के विधिक और संवैधानिक ढांचे में बहुत योगदान दिया है। इस न्यायालय के लब्ध प्रतिष्ठ अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों ने राष्ट्र निर्माण तथा सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने में अपार योगदान दिया है।
भारतीय न्यायपालिका ने, सामान्यत: राष्ट्रीय विकास में और भारतीय संविधान के आदर्शों को कायम रखने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। भारतीय संविधान के अनुसार, राज्य को अपने नागरिकों को एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था प्रदान करने का दायित्व सौंपा गया है जिसमें राष्ट्र की विधिक प्रणाली समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा दे सके। राज्य को यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी नागरिक को जाति, पंथ, लिंग या आर्थिक या अन्य कमजोरी के आधार पर न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित न किया जाए।
वर्तमान में, हमारे देश की जनसंख्या लगभग 1 अरब 20 लाख है। इतनी विशाल जनसंख्या वाले देश के लिए, न्यायिक संस्थाओं के पास इसके नागरिकों को समयबद्ध, वहनीय और गुणवत्ता युक्त न्याय प्रदान करने का विषम कार्य है, चाहे वे अपने नागरिक अधिकारों को लागू करवाने अथवा आपराधिक दुर्व्यवहार के आरोपों के विरुद्ध अपनी बेगुनाही साबित करने के लिए न्यायालय जाते हैं। यदि न्यायपालिका के प्रति भारतीयों के विश्वास और आस्था को कायम रखना है तो उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि सामाजिक व्यवस्था को बनाए रखने के लिए, कानून का उल्लंघन करने वाले लोगों के विरुद्ध तीव्रता और सख्ती से निपटा जाए।
मुझे आज यह कहते हुए, कोई हिचक नहीं है कि भारतीय न्यायपालिका विधिक शासन को अक्षुण्ण रखकर तथा हर कीमत पर व्यक्तिगत स्वाधीनता और स्वतंत्रता के अधिकार को लागू करके लोगों की आस्था और विश्वास पर सचमुच खरी उतरी है। न्यायपालिका इस उल्लेखनीय उपलब्धि के लिए नि:संदेह सम्मान की पात्र है।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता हमारे लोकतंत्र की आधारशिला है। हमारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता के संरक्षण और परिरक्षण के लिए सभी जरूरी कार्य किए जाने चाहिए। परंतु यह कार्य संविधान में निहित नाजुक शक्ति संतुलन को बनाए रखते हुए करना होगा। यह जरूरी है कि सरकार का प्रत्येक अंग अपने दायरे में कार्य करे है और कोई भी दूसरों के सौंपे गए कार्यों में हस्तक्षेप न करे।
जहां विधायिका और कार्यपालिका का शक्ति प्रयोग न्यायपालिका की समीक्षा के अधीन है, वहीं न्यायपालिका के शक्ति प्रयोग पर आत्म आरोपित अनुशासन और आत्मसंयम ही रोकथाम है। ऐसा कानून जो कि न्यायपालिका की विश्वसनीयता के परिरक्षण और संरक्षण के साथ उसकी स्वतंत्रता को सावधानी से संतुलित कर पाए, न्यायपालिका के अपने प्रयासों में उपयोगी सहायक हो सकता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि संविधान सर्वोपरि है, न कि विधायिका, कार्यपालिका या न्यायपालिका जैसी इसकी कोई रचना।
हमारे न्यायाधीशों ने नवान्वेषणों और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्याय की सीमाओं के विस्तार तथा उसको हमारे देश के निर्धनतम व्यक्ति तक पहुंचाने में अपार योगदान दिया है। इसी के साथ, लोकतंत्र के एक महत्त्वपवूर्ण स्तंभ के रूप में न्यायपालिका को, आत्मविश्लेषण और आत्मसुधार की प्रक्रिया के माध्यम से खुद को नवीकृत करते रहना चाहिए।
किसी भी संसदीय लोकतंत्र में, सुशासन के लिए सबसे बड़ी चुनौती लोगों की अपेक्षाओं तथा सुपुर्दगी तंत्र के बीच के अंतराल को समाप्त करना है। कारगर शासन के लिए कारगर संस्थाओं की जरूरत पड़ती है और चाहे विधायिका हो, कार्यपालिका हो या न्यायपालिका हो, संस्थाओं की कारगता उन उपलब्ध तंत्रों तथा सहयोगात्मक नियमों, विनियमों और प्रक्रियाओं के ढांचे पर निर्भर है जिन्हें बदलते समय और नवीन परिस्थितियों के अनुसार निरंतर विकसित करना पड़ता है।
यद्यपि भारतीय न्यायपालिका ने भारतीय लोकतंत्र में अपना प्रमुख स्थान बना रखा है, परंतु एक ऐसा क्षेत्र है, जिसमें वह पिछड़ रहा है, वह है, लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने तथा इसके द्वार पर फरियाद करने वाले लोगों को शीघ्र, त्वरित और सुगम्य न्याय प्रदान करने में असमर्थ होना।
बहुत कुछ किया जा चुका है, परंतु वह पर्याप्त नहीं है। हमारे न्यायालयों को अतिरिक्त संसाधनों के द्वारा तत्काल सुदृढ़ बनाना होगा। देश भर के न्यायालयों में रिक्तियों को सभी संबंधित लोगों द्वारा प्राथमिकता के आधार पर भरा जाना चाहिए। न्यायाधीशों का चयन और नियुक्ति सर्वोच्च मानदंडों के अनुरूप होनी चाहिए और सुस्थापित व पारदर्शी सिद्धांतों पर आधारित होनी चाहिए।
हमारे देश की न्यायिक प्रणाली सुगम्य ही नहीं बल्कि वहनीय होनी चाहिए। समय बर्बाद करने वाली महंगी मुकदमेबाजी की समस्या से निपटने के लिए खर्चीले मध्यस्थता और मध्यस्थम जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। इसके अलावा, मुफ्त कानूनी सहायता की पर्याप्त व्यवस्था करनी होगी। पूरे देश में कानूनी साक्षरता फैलाने और कानूनी शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए भी अधिक प्रयास करने होंगे।
सरकार ने न्यायपालिका की साझीदारी से त्वरित न्याय प्रदान करने के लिए अनेक पहलें की हैं। ई-न्यायालय मिशन पद्धति परियोजना के अंतर्गत 11000 से अधिक जिलों/अधीनस्थ न्यायालयों को पहले ही कम्प्यूटरीकृत कर दिया गया है। सरकार को उम्मीद है कि मार्च, 2014 तक 14000 सूचना और संचार प्रौद्योगिकी समर्थित न्यायालयों का लक्ष्य पूरा हो जाएगा। परियोजना पूरी होने के बाद, न्यायालयों में प्रकरण प्रबंधन को स्वचालित हो जाएगा। न्यायालय वादियों और अन्य भागीदारों को इलेक्ट्रानिक रूप से चालीस से अधिक सेवाएं प्रदान करने की स्थिति में होंगे। इसके फलस्वरूप, न्यायालय तीव्र और शीघ्र न्याय प्रदान कर सकेंगे।
सूचना और संचार प्रौद्योगिकी न्यायालय अंतत: अगले स्तर पर पहुंच जाएंगे और वे पूर्ण ई-न्यायालय बन जाएंगे। भावी न्यायालयों के रूप में, ई-न्यायालय पुलिस स्टेशनों, कारागारों, फोरेंसिक प्रयोगशालाओं, अस्पतालों से जुड़े होंगे होंगे तथा साक्ष्य ऑन लाइन दर्ज करेंगे। मामले ऑन लाइन दर्ज होंगे और ऐसे ही शुल्क का भुगतान भी ऑन लाइन हो जाएगा। ई-न्यायालयों के सभी रिकॉर्ड डिजीटल हो जाएंगे तथा न्यायालयों के निर्णय भी लोगों को वेबसाइट पर उपलब्ध हो जाएंगे।
मामलों के तीव्र निपटान के लिए न्यायालय कार्यप्रणालियां और प्रक्रियाएं एक ऐसा अन्य महत्त्वपूर्ण न्यायिक सुधार है जिस पर कार्य चल रहा है और उस पर न्यायपालिका के साथ मिलकर कार्य किया जा रहा है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हाल में प्रकरण प्रबंधन और न्यायालय प्रबंधन के मुद्दों का समाधान करने, न्यायालयों के निष्पादन के मापदंडों की स्थापना करने तथा देश में राष्ट्रीय न्यायपालिका सांख्यिकी प्रणाली स्थापित करने के लिए एक राष्ट्रीय न्यायालय प्रबंधन प्रणाली अधिसूचित की है। इन सभी से न्याय प्रदान करने की गति तेज होगी और एक बार शुरू होने के बाद इससे एक राष्ट्रीय एरियर ग्रिड की स्थापना में मदद मिलेगी। राष्ट्रीय एरियर ग्रिड बाद में प्रत्येक न्यायालय में विचाराधीन मामलों पर निगरानी तथा पुराने लम्बित मामलों के तीव्र निपटान का श्रेष्ठ साधन बन जाएगा।
विचाराधीनता की समस्या से निपटने तथा न्याय की गुणवत्ता के सुधार के अनेक दूसरे प्रयास भी जारी हैं। विधि आयोग की अध्यक्षता में आपराधिक न्याय प्रणाली के सुधार का बारीकी से अध्ययन करने के लिए एक उपसमूह की स्थापना की गई है। 2011 में सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय न्याय सुपुर्दगी और विधिक सुधार मिशन ने ढांचागत बदलावों और निष्पादन मानक और क्षमताओं की स्थापना के माध्यम से जवाबदेही बढ़ाने की प्रणाली में देरी और बकाया मामले कम करके न्याय तक पहुंच के दोहरे उद्देश्य की पूर्ति के अनेक मापदंड पहले ही शुरू कर दिया है। यह मिशन संकल्पना पत्र 2009, जिसे न्यायपालिका की स्वीकृति प्राप्त है, में सूचीबद्ध उपायों को सक्रियता से पूरा करेगा।
मुझे विश्वास है कि ये सभी उपाय जो प्रक्रियाधीन हैं अथवा कार्यान्वयन के विभिन्न स्तरों पर है, से न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता बढ़ेगी तथा देश के लेगों को न्याय प्रदान प्रदान करने में और तेजी व पारदर्शिता आएगी।
कोलकाता के उच्च न्यायालय में 58 न्यायाधीशों के स्वीकृत पदों की तुलना में 41 न्यायाधीश हैं। 31 दिसम्बर, 2011 तक कलकत्ता उच्च न्यायालय में 3.47 लाख मामले लम्बित हैं, उनमें से 3 लाख से अधिक दीवानी मामले हैं। कलकत्ता उच्च न्यायालय के अधीनस्थ न्यायालयों में लगभग 26 लाख मामले लंबित हैं और उनमें से 21 लाख से अधिक मामले आपराधिक हैं। मामलों का निपटान तेजी से करना आवश्यक है, क्योंकि न्याय में देरी, न्याय से वंचित करना है।
मुझे विश्वास है कि भारत सरकार और पश्चिम बंगाल की राज्य सरकार लंबित मामलों के ढेर को कम करने के प्रयास में कलकत्ता उच्च न्यायालय को सभी संभावित सहयोग प्रदान करेगी। मुझे यह भी विश्वास है कि दोनों सरकारें यह सुनिश्चित करने के लिए प्रतिबद्ध हैं कि हमारे नागरिकों की न्याय तक और अधिक पहुंच के प्रयासों के कार्यान्वयन में धन को आड़े नहीं आने दिया जाएगा।
हमारे संविधान को जनसाधारण के लिए वास्तविकता बनाने के लिए सरकार, न्यायपालिका और अधिवक्ताओं को एकजुट होकर कार्य करना चाहिए। हमारे संवैधानिक ढांचे में, न्यायपालिका को एक सम्मानजनक भूमिका प्रदान की गई है। न्यायमूर्ति वी.आर. अय्यर के शब्दों में, तीनों अंगों में न्यायपालिका का स्थान लोगों की चेतना और विश्वास में सबसे ऊंचा है।’’
मुझे विश्वास है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय 150 वर्षों की अपनी महान विरासत को कायम रखेगा। यह विधि, न्याय, विधि शास्त्र के विकास में अपने योगदान को बढ़ाएगा। इसके साथ ही, यह भी सुनिश्चित करेगा कि न्याय का प्रशासन जनसाधारण के प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता के साथ जारी रहेगा।
मैं कलकत्ता उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों, बार के सदस्यों और कर्मचारियों को उनकी विगत उपलब्धियों के लिए बधाई देता हूं और उनके भावी प्रयासों के लिए शुभकामनाएं देता हूं।
जय हिंद!