भारत के संविधान की उद्देशिका में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सभी स्वरूपों में न्याय पर बल दिया गया है। एक कारगर न्याय प्रदान करने वाली प्रणाली के लिए जरूरी है कि न्याय न केवल समय पर प्रदान किया जाए बल्कि यह समाज के कमजोर वर्गों सहित, लोगों के लिए सुगम्य भी हो।
आम नागरिकों को शीघ्र और उत्तम न्याय प्रदान करने के लिए हमारी न्यायिक प्रणाली में सुधार की तात्कालिक आवश्यकता है। सुधार की यह प्रक्रिया देश की उन आवश्यकताओं के आकलन के साथ शुरू होनी चाहिए जिन्हें विधिक पेशे द्वारा पूरा किया जाना है अर्थात् न्यायपालिका की विभिन्न स्तरों की जरूरतें; आपराधिक न्याय प्रणाली में रिक्तता; निकट भविष्य में अधिक संख्या में अधिवक्ताओं की जरूरत वाले विधि के विशिष्ट क्षेत्र आदि। सुधार का हमारा नज़रिया प्रणाली की वर्तमान कमियों तथा भावी आवश्यकताओं की अच्छी समझ से निर्धारित होना चाहिए।
ऐतिहासिक रूप से, न्यायिक सुधार में न्यायपालिका पर बल दिया गया है। न्यायिक प्रणाली के एक प्रमुख स्तंभ अधिवक्ता की अक्सर अनदेखी की गई है। विधिक शिक्षा और सतत् पेशेवर विकास द्वारा सामाजिक रूप से संवेदनशील विवेकपूर्ण अधिवक्ता तैयार किया जाना चाहिए, जिसके लिए न्याय में देरी कोई वाणिज्यिक अवसर नहीं बल्कि पेशेवर व्यक्तित्व पर एक धब्बा और उस प्रणाली की विफलता होनी चाहिए जिसका वह एक अभिन्न हिस्सा है। एक आदर्श भारतीय अधिवक्ता के पास न केवल उत्कृष्ट विधिक दक्षता होनी चाहिए बल्कि उसमें सामाजिक दायित्व और दृढ़ पेशेवर नैतिकता का भी समावेश होना चाहिए। विधि शासन की कारगरता काफी हद तक नागरिक और न्याय प्रणाली के बीच की यह कड़ी अधिवक्ता की निष्ठा पर निर्भर करती है।
हमारे देश में न्यायिक सुधार के प्रथम चरण में राष्ट्रीय विधि स्कूल स्थापित किए गए और इसने दिखा दिया है कि भारत में वहनीय किंतु विश्व स्तरीय विधिक शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थान हो सकते हैं। सुधार के दूसरे चरण में अब अधिवक्ताओं, न्यायाधीशों, न्यायिक अधिकारियों, नौकरशाहों और शिक्षाविदों की सतत् विधि शिक्षा पर बल दिया जाना चाहिए। अब जरूरत है संगोष्ठियों, सम्मेलनों, व्याख्यानों आदि को व्यवस्थित ढंग से संचालित करने की, पहले सतत् विधि शिक्षा को सभी के लिए सुलभ करवाया जाए तथा संभवत: इसके बाद इसे विश्व के बहुत से अन्य देशों के समान अनिवार्य किया जाए।
वैश्वीकरण तथा विदेशी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष निवेश के हमारे अनेक सेक्टरों के खुलने के कारण विधिक क्षेत्र में नई चुनौतियां सामने आ रही हैं। बौद्धिक संपदा अधिकार, अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक करारों के प्रवर्तन, साइबर कानून आदि से सम्बन्धित मामले बढ़ रहे हैं। इसके अलावा, भारत ने अनेक अंतरराष्ट्रीय विलेखों का अनुसमर्थन, हस्ताक्षर और अपनाया है तथा विभिन्न अंतरराष्ट्रीय समझौतों, संधियों और करारों में विभिन्न वायदे किए हैं। द्विपक्षीय निवेश संरक्षण समझौतों जैसे, हमारे इन समझौतों तथा अन्य संधियों और करारों के प्रति हमारे दायित्वों और प्रतिबद्धताओं से जुड़े मामले विधिक न्यायालयों और अंतरराष्ट्रीय तथा घरेलू विवाचन न्यायाधिकरणों में पहुंच रहे हैं। इन विशिष्ट किस्म के मामलों को निपटाने के लिए अत्यधिक कौशल और अनुभव की जरूरत होती है। कुछ मामलों में अंतरराष्ट्रीय और घरेलू कानूनों की मिली-जुली भूमिका होती है। इसलिए बार के सदस्यों से उन मामलों में प्रतिनिधित्व करने के लिए स्वयं का पूरी तरह तैयार करने की अपेक्षा की जाती है।
यह भी अत्यावश्यक है कि न्यायाधीशों को साइबर कानून, बौद्धिक सम्पदा मामले, कम्प्यूटर और इंटरनेट आदि से जुड़े मामलों जैसे उभरते हुए विधि क्षेत्रों की जानकारी देने के लिए न्यायिक अकादमियों की तरह सतत् विधिक शिक्षण केन्द्र स्थापित किए जाएं। इन केंद्रों में न्यायाधीशों को विभिन्न विधाओं के प्रख्यात लोगों के साथ बातचीत करने का अवसर मिलना चाहिए ताकि वे जमीनी वास्तविकताओं से अवगत हो सकें और उन्हें अपने महती कार्यों के प्रभावी निर्वहन में मदद मिले।
सतत् विधिक शिक्षा की व्यापक प्रणाली की स्थापना से पेशेवर कौशल, जवाबदेही तथा लोगों के बीच अधिवक्ताओं का सम्मान बढ़ेगा। राजीव गांधी अधिवक्ता प्रशिक्षण योजना जैसी प्रशिक्षण योजनाओं का विस्तार किया जाना चाहिए, जिससे वे युवा अधिवक्ता उसका लाभ उठा सकें जिन्होंने हाल ही में वकालत का पेशा अपनाया है। यह भी उपयोगी रहेगा कि भारत की बार कौंसिल ऐसा विश्वस्तरीय संस्थान स्थापित करने पर विचार करे जो राष्ट्रीय विधि विद्यालयों की तर्ज पर सतत् विधि शिक्षा प्रदान कर सके।
अब, मैं किशोर न्याय के विषय पर आता हूं। हमारे राष्ट्र का भविष्य हमारे बच्चों के सही पालन-पोषण पर निर्भर करता है। पर्याप्त अवसर और मार्गदर्शन प्रदान किए जाने पर उनमें समाज और मानवता को योगदान देने की अपार क्षमता पैदा होगी। परंतु यदि उन्हें उपेक्षित और वंचित रखा जाएगा तो उनका व्यवहार विचलित और विध्वंसकारी हो जाएगा, जिससे समाज को अपूरणीय क्षति होगी। बच्चों को शोषण, नैतिक खतरों, असामाजिक गतिविधियों से बचाने तथा उनका लालन-पालन एक सद्भावनापूर्ण माहौल में करने की जरूरत है। उन्हें शिक्षा प्राप्त करने, व्यापक ज्ञान हासिल करने तथा बाल अनुकूल वातावरण में पल्लवित होने का अवसर मिलना चाहिए ताकि वे एक ऐसे अच्छे इन्सान बनें जिनके जीवन का एक ध्येय हो।
हमारे देश की विधिक बाल संरक्षण प्रणाली में, बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006, किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम, 2000 तथा हाल ही में लागू यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम 2012 आदि जैसे कानून शामिल हैं। भारत में विश्व की सबसे अधिक बाल जनसंख्या है तथा देश की एक तिहाई जनसंख्या अठारह वर्ष से कम है। वर्तमान में हम किशोर न्याय से संबंधित अनेक मुद्दों पर चर्चा तथा विचार कर रहे हैं जिनमें उन किशोरों की आयु और बर्ताव शामिल है जिनमें अपने कृत्यों के बारे में निर्णय लेने की मानसिक क्षमता मौजूद है। किशोर न्याय कानून के सुधारात्मक नजरिए पर सवाल उठाए जा रहे हैं और ऐसे कानून की मांग हो रही है जिसका निवारक प्रभाव हो, जिसमें दोषी की आयु पर ध्यान दिए बिना उसके द्वारा किए गए अपराध के अनुसार दण्डित किया जा सके।
यह बहस भारत तक ही सीमित नहीं है। पूरी दुनिया में किशोर अपराध न्याय व्यवस्था के बारे में समझ अभी विकासात्मक चरण में है। संवाद और कानून देशों के अनुसार अलग-अलग हैं और मानव अधिकारों के प्रति उनका नजरिया, उनकी विधिक और तकनीकी क्षमताओं तथा उनके शासनतंत्र पर निर्भर करता है। भारत में हमें शीघ्रता से इस समस्या पर विचार करते हुए ऐसे सिद्धांत तय करने के लिए सहमति बनानी होगी जो हमारी किशोर अपराध न्याय प्रणाली का आधार बन सकें।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012, भारत में बाल संरक्षण का एक सबसे नवीनतम प्रयास है। बच्चों को किसी भी प्रकार के यौन अपराधों से बचाने की एक मजबूत व्यवस्था लागू करने के लिए 2012 में यह अधिनियम लागू किया गया था। इस तरह के कानून की जरूरत महसूस की जा रही थी क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि बच्चों के प्रति यौन अपराधों में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। देश में पिछले छह वर्षों के दौरान, बच्चों के साथ बलात्कार की घटनाएं बढ़ती गई हैं और 2012 में यह संख्या अश्चर्यजनक रूप से 8541 तक पहुंच गई। यह अधिनियम एक वर्ष से मौजूद है और इस छोटी सी अवधि में इसे लागू करने में कई चुनौतियां सामने आई हैं। इस कानून को वास्तविक रूप से कारगर बनाने के लिए इन पर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है।
सरकार ने 2009 में किशोर न्याय अधिनियम लागू करने के लिए एक समेकित बाल संरक्षण योजना की शुरुआत की है। इस योजना ने राष्ट्रीय, राज्य और जिला स्तर पर सेवा उपलब्धता ढांचों का एक सुरक्षा तंत्र निर्मित किया है; विशेष रूप से बाल संरक्षरण पर काम करने वाले प्रशिक्षित कार्मिकों के संवर्ग की शुरुआत की है; प्रत्येक बच्चे की जरूरत के आधार पर विभिन्न सेवाएं प्रदान की हैं तथा संरक्षण के लिए मौजूदा प्रयासों और नए उपायों को एकीकृत किया है। परंतु हाल ही की न्यायमूर्ति वर्मा समिति जैसी रिपोर्टों ने ध्यान दिलाया है कि अक्सर जिस व्यक्ति के लिए अर्थात हमारे बच्चों के संरक्षण के लिए, जिस तंत्र को तैयार किया गया है, वह उसकी जरूरतों पर पूरा ध्यान दिए जाने में नाकाम रहता है। दुर्भाग्यवश सेवा प्रदाताओं के बीच जानकारी और जागरूकता का अभाव तंत्र की नाकामी के मुख्य कारणों में से है।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम के बारे में व्यस्कों, अभिभावकों, देखभालकर्ताओं, शिक्षकों और प्रशासन में पदस्थ व्यक्तियों का अधिक जागरूक होना जरूरी है। सेवा प्रदाताओं को हर स्तर पर इस मुद्दे पर जागरूक बनाना होगा और उनकी क्षमता बढ़ानी होगी।
आपके जैसी बार काउंसिल इस कानून के कार्यान्वयन में मजबूती लाने में बहुत योगदान कर सकती है तथा एक कारगर, न्यायपूर्ण, बाल संवेदनशील किशोर न्याय प्रणाली का संचालन सुनिश्चित कर सकती है। मुझे उम्मीद है कि इस संगोष्ठी में किए गए विचार-विमर्श से इस सम्बन्ध में एक खाका तैयार हो सकेगा।
देवियो और सज्जनो, विचार-विमर्श के लिए चुने गए दोनों विषयों की अत्यंत सामयिक प्रासंगिकता है। मुझे विश्वास है कि इस संगोष्ठी में जानकारी और अनुभवों का उद्देश्यपूर्ण विनियम और आदान-प्रदान होगा।
मैं सभी प्रतिभागियों को अपनी शुभकामनाएं देता हूं।
धन्यवाद, जय हिंद!