मुझे, उत्कल विश्वविद्यालय के 45वें दीक्षांत समारोह के लिए यहां आकर तथा प्रख्यात शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों तथा विद्यार्थियों को संबोधित करके बहुत प्रसन्नता हो रही है। कटक में एक किराए के भवन में 1943 में शुरू हुआ यह विश्वविद्यालय आज पूर्वी क्षेत्र में उच्च शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र बन चुका है। इस समय विश्वविद्यालय में 27 स्नातकोत्तर विभाग, दो विधि कॉलेज, एक सुदूर शिक्षा संस्थान तथा 365 संबद्ध कॉलेज हैं और इसका यह विस्तार गर्व तथा संतोष का विषय है। मैं इस विश्वविद्यालय में आकर वास्तव में गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं, जिसकी आधारशिला भारत के प्रथम राष्ट्रपति, डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा रखी गई थी और जिसका उद्घाटन भारत के द्वितीय राष्ट्रपति, डॉ. एस. राधाकृष्णन द्वारा किया गया था।
इसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में 2 जनवरी, 1963 को, डॉ. एस. राधाकृष्णन ने कहा था : ‘‘मैं यह उम्मीद करता हूं कि ज्ञान की यह पीठ ऐसे पुरुषों एवं महिलाओं को तैयार करेगी जो जिएंगे, प्यार करेंगे, जोखिम लेंगे, कष्ट उठाने के लिए तैयार रहेंगे तथा एक सभ्य समाज का सृजन करेंगे।’’ इससे मेरी कल्पना में एक ऐसे युवक की कहानी उभर आती है जो कि स्वतंत्रता के जज्बे से भरा हुआ था। उसके लिए यह संघर्ष सीमाओं से रहित था। अपनी युवावस्था के दौरान उसने एक साम्राज्यवादी ताकत की सीमा के अंदर विमान को उड़ाते हुए दो इन्डोनेशियाई स्वतंत्रता सेनानियों को निकाला और उन्हें भारत में सुरक्षित ले आए। इस युवक की जान जा सकती थी, और इससे समकालिक भारत के एक राजनेता की कहानी का शुरू में ही अंत हो सकता था। उस युवक का नाम था बीजू पटनायक। मैं भारत के इस महान सपूत को सम्मान के साथ शृद्धांजलि अर्पित करता हूं।
उत्कल विश्वविद्यालय की स्थापना में महाराजा कृष्ण चंद्र गजपति, श्री बिश्वनाथ दास, पंडित नीलकंठ दास तथा पंडित गोदावरिश मिश्र ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह अवसर प्रो. प्राणकृष्ण पारिजा, प्रो. वी.वी. जॉन, प्रो. गणेश्वर मिश्र, प्रो. विद्याधर मिश्र, प्रो. एम.एन. दास, प्रो. श्रीराम चंद्र दास, प्रो. ए. अयप्पन तथा प्रो. एस.के. दास जैसे प्रख्यात शिक्षकों को श्रद्धांजलि देने का अवसर भी है। उनकी परिकल्पना तथा उत्कृष्ट प्रयासों के परिणामस्वरूप ही उत्कल विश्वविद्यालय को देश के विश्वविद्यालयों के बीच एक विशिष्ट पहचान तथा गौरवपूर्ण स्थान मिला।
देवियो और सज्जनो, शिक्षा मानव प्रगति तथा सशक्तीकरण के लिए एक शक्तिशाली उपकरण है। यह सामाजिक चिंतन एवं रूपांतरण का भी एक महत्त्वपूर्ण कारक है।
हाल ही में महिलाओं और बच्चों पर पाशविक हमला तथा बलात्कार की घटनाओं ने देश की सामूहिक अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया। इन दुखद घटनाओं ने दिखाया है कि हमारे समाज को ठहरकर, मूल्यों के ह्यस तथा महिलाओं और बच्चों की संरक्षा एवं सुरक्षा सुनिश्चित करने में बार-बार हमारी असफलता पर तत्काल विचार करने की जरूरत है। इस तरह का आपराधिक चारित्रिक पतन समाज के सभ्यतापूर्वक संचालन के लिए खतरा है। हमें इसके कारणों की पहचान करके इसका समाधान ढूंढना चाहिए। समाज को महिलाओं की गरिमा तथा सम्मान सुनिश्चित करना चाहिए।
पिछले गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर, मैंने राष्ट्र के नाम अपने संदेश में कहा था कि अब समय आ गया है कि हम अपनी नैतिकता की दिशा को फिर से निर्धारित करें। मैं युवाओं को शिक्षा प्रदान करने वाले तथा उनके मस्तिष्कों को प्रभावित करने वाले तथा समाज पर नैतिक प्रभाव रखने वाले लोगों का आह्वान करता हूं कि वे इस प्रक्रिया को शुरू करें। हमारे विश्वविद्यालयों तथा अकादमिक संस्थानों को शिक्षा प्रदान करने में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए, जिससे हमें अपने समय की नैतिक चुनौतियों का सामना करने में सहायता मिलेगी। इससे हमें मानवीय गरिमा तथा समानता के मूल्यों पर आधारित आधुनिक लोकतंत्र की स्थापना करने में सहायता मिलनी चाहिए।
देवियो और सज्जनो, हमारे संविधान में प्रावधान है कि हमें मानवीय भावना की स्वतंत्रता, सभी के लिए आर्थिक अवसर तथा सामाजिक न्याय पर आधारित समाज की रचना करनी है। हमें आर्थिक विकास का उपयोग अपने लोगों, खासकर सामाजिक-आर्थिक पिरामिड के सबसे निचले पायदान पर मौजूद लोगों की बेहतरी के लिए करना है। समावेशी आर्थिक विकास की हमारी कार्य-योजना ने सकारात्मक परिणाम दिखाए हैं। पिछले 10 वर्षों के दौरान हमारी औसत वार्षिक आर्थिक विकास 7.9 प्रतिशत थी, यद्यपि यह 2012-13 में घटकर 5.00 प्रतिशत रह गया। परंतु मुझे विश्वास है कि जो उपाय हम कर रहे हैं उनके कारण हम अगले दो से तीन वर्षों के दौरान 7 से 8 प्रतिशत के विकास स्तर पर पहुंच जाएंगे।
लोकतांत्रिक राजव्यवस्था का एक उच्च लक्ष्य अर्थात आनुपातिक न्याय केवल सुदृढ़ शिक्षा प्रणाली की शक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। भारत में उच्च शिक्षा प्रणाली गुणवत्ता, वहनीयता तथा सुलभता के तीन स्तंभों पर आधारित है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना अवधि के अंत में हमारे देश में कुल 659 उपाधि प्रदान करने वाले संस्थान तथा 33000 कॉलेज थे। ग्यारहवीं योजना अवधि के अंत में उच्च शिक्षा में जो नामांकन संख्या 2.6 करोड़ थी, उसके बारहवीं योजना अवधि के अंत में बढ़कर 3.6 करोड़ होने की परिकल्पना की गई है।
उच्च शिक्षा में परिमाणात्मक वृद्धि के प्रयासों के साथ ही गुणवत्ता में सुधार के समुचित प्रयास भी जरूरी हैं। यह बहुत चिंता की बात है कि विश्वविद्यालयों के एक अतंरराष्ट्रीय सर्वेक्षण के अनुसार भारत का कोई भी विश्वविद्यालय विश्व के 200 सर्वोत्तम विश्वविद्यालयों में शामिल नहीं है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने 2006 में अपनी रिपोर्ट में उच्च शिक्षा की गुणवत्ता में कमी का उल्लेख करते हुए इसे ‘‘एक प्रशांत संकट जो कि गहराई तक मौजूद है’’ बताया था।
हमें वैश्विक मापदण्डों को पूरा करने के लिए अपनी ऊर्जा भारतीय विश्वविद्यालयों के विकास की दिशा में लगानी होगी। इनमें उत्कृष्टता की संस्कृति को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इसके लिए सुधार की गुंजायश के साथ एक गतिशील उच्च शिक्षा प्रणाली की जरूरत है।
देवियो और सज्जनो, बढ़ती हुई मांग को पूरा करने के लिए अकादमिक संस्थाओं की बढ़ती संख्या पर्याप्त नहीं है। विश्व में दूसरी सबसे विशाल उच्च शिक्षा प्रणाली के बावजूद, भारत में 18-24 वर्ष की आयु वर्ग में प्रवेश दर मात्र 7 प्रतिशत है। इसकी तुलना में, जर्मनी में यह 21 प्रतिशत और अमरीका में 34 प्रतिशत है। इससे बहुत से प्रतिभावान विद्यार्थी उच्च शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं। सुलभ्यता प्रदान करना समावेशिता की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कार्य होगा।
हमारे विश्वविद्यालयों को शिक्षण के नवान्वेषी तरीके अपनाने चाहिएं। सहयोगात्मक सूचना आदान-प्रदान के लिए प्रौद्योगिकी का प्रयोग किया जा सकता है। सूचना और संचार प्रौद्योगिकी के माध्यम से राष्ट्रीय शिक्षा मिशन की अवसंरचना का अधिक से अधिक प्रयोग किया जाना चाहिए। शहरों और नगरों से दूर स्थित संस्थानों में अध्ययनरत विद्यार्थियों को महत्त्वपूर्ण व्याख्यानों का प्रसारण सामान्य बात बन सकती है।
सार्वजनिक वित्त पोषण पर बहुत सी मांगों के दबाव को देखते हुए, उच्च शिक्षा क्षेत्र में बढ़ती हुई मांग को पूरा करने का दायित्व आंशिक रूप से निजी क्षेत्र को उठाना होगा। बहुत से निजी संस्थानों ने गुणवत्ता और मानदंडों के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा अर्जित की है। हमें, सामाजिक उद्देश्यों और गुणवत्ता मापदंडों में कमी लाए बिना निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा देना चाहिए।
उच्च शिक्षा में समावेशिता की सफलता वहनीयता पर भी निर्भर करती है। खराब आर्थिक स्थिति वाले प्रतिभावान विद्यार्थियों की छात्रवृत्ति, विद्यार्थी ऋण तथा स्वयं सहायता योजना जैसे उपायों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने में मदद करनी चाहिए।
हमें अपने कॉलेजों पर ध्यान देना चाहिए क्योंकि विद्यार्थियों का लगभग 87 प्रतिशत बड़ा हिस्सा देश के सम्बद्ध कॉलेजों में दाखिला लेता है। सम्बद्धता प्रदान करने वाले विश्वविद्यालयों का एक बड़ा दायित्व पाठ्यचर्या और मूल्यांकन में उच्च मानदंड कायम रखने के लिए इन कॉलेजों का मार्गदर्शन करना है।
शिक्षकों की कमी हमारे विश्वविद्यालयों में श्रेष्ठ शिक्षा प्रदान करने में एक प्रमुख बाधा है। इस बाधा के कारण शिक्षा के स्तर को प्रभावित नहीं होने दिया जा सकता। इसलिए रिक्तियों की भर्ती को उच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
सुकरात ने कहा था, ‘‘शिक्षा पात्र को भरना नहीं बल्कि ज्योति प्रज्ज्वलित करना है।’’ मुझे विश्वास है कि हमारे उच्च शिक्षण संस्थानों में ऐसे अध्यापक हैं जो पाठ्य पुस्तकों के अलावा ज्ञान प्राप्त करने और नए विचार खोजने के लिए विद्यार्थियों को प्रेरित कर सकते हैं। ऐसे विशिष्ट अध्यापकों को, नए अध्यापकों और विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
देवियो और सज्जनो, हमारी आर्थिक प्रगति नवान्वेषण करने की हमारी क्षमता पर निर्भर करेगी। भारत नवान्वेषण के मामले में प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं से पिछड़ा हुआ है। यद्यपि विश्व जनसंख्या में भारतीयों का हिस्सा छठा है परंतु विश्व के 50 में से एक पेटेंट का आवेदन भारत में किया जाता है। हम में नवान्वेषण कर सकने की क्षमता की कमी नहीं परंतु नवान्वेषण को प्रोत्साहित करने और उन्हे तैयार करने की क्षमता की कमी है।
हमारा अकादमिक वातावरण अनुसंधान के अनुकूल होना चाहिए। अनुसंधान अध्येतावृत्तियों की संख्या बढ़ाना, अन्तर-विधात्मक और अन्तर-विश्वविद्यालय अनुसंधान साझीदारियों में सहयोग तथा उद्योग विकास पार्कों की स्थापना जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण कदम आवश्यक हैं। हमारी व्यवस्था को, विदेश में कार्यरत भारतीय अनुसंधानकर्ताओं को वापस बुलाकर उन्हें और अल्पकालिक परियोजनाओं पर कार्य करने के लिए, लचीले तरीके से संचालित होना चाहिए।
नवान्वेषण से जनसाधारण को लाभ होना चाहिए। ऐसे जमीनी स्तर के नवान्वेषण हैं जिन्हें आर्थिक रूप से व्यवहार्य उत्पादों में बदलने के लिए तकनीकी और वाणिज्यिक सहायता की जरूरत है। हमारे विश्वविद्यालयों और उद्योग को ऐसे प्रयासों में सहयोग के लिए तालमेल करना चाहिए।
मैं, आज उपाधि प्राप्त करने वाले सभी विद्यार्थियों को बधाई देता हूं। कृपया यह याद रखें कि शिक्षण एक अनवरत प्रक्रिया है। आपको जीवन में सीखने के बहुत अवसर मिलेंगे। मस्तिष्क को खुला रखें और धैर्य, सच्चाई और साहस के साथ जीवन की चुनौतियों को पूरा करने के लिए तैयार रहें। आपके भावी सफल जीवन के लिए मेरी शुभकामनाएं।
धन्यवाद,
जय हिंद!