रामनाथ गोयनका स्मृति व्याख्यान के लिए निमंत्रण वास्तव में मेरे लिए वास्तव में सौभाग्य और प्रसन्नता की बात है।
इंडियन एक्सप्रेस के बारे में सोचने पर मुझे श्री रामनाथ गोयनका याद आ जाते हैं।
रामनाथजी पत्रकारिता के उत्कृष्टतम गुणों : प्रखर स्वतंत्रता,शक्तिशाली के समक्ष सदैव निडरता और संकल्प के साथ अडिग रहना तथा सत्ता के गलत प्रयोग अथवा दुरुपयोग के विरुद्ध संघर्ष के प्रतिमान थे। वास्तव में,उनके लिए सही और न्यायसंगत को प्रकाशित करने के इंडियन एक्सप्रेस के अधिकार की रक्षा की लड़ाई से अधिक कुछ भी आनंदकारी नहीं था।
वह एक योद्धा थे, जिन्होंने प्रेस पर नियंत्रण के प्रयासों के समक्ष अपने सभी सिद्धांतों को दांव पर लगाने तथा भारत में प्रेस की स्वतंत्रता के सर्वोच्च मानदंड स्थापित करने की आकांक्षा को मुखरता प्रदान की।
आपातकाल के दौरान रामनाथजी के नेतृत्व में इंडियन एक्सप्रेस द्वारा प्रकाशित शून्य संपादकीय कदाचित् भारत में सेंसरशिप के विरुद्ध प्रकाशित अब तक का सबसे कड़ा विरोध था।
यह शब्दों से अधिक अभिव्यक्तिपूर्ण था।
रामनाथजी ने अगस्त, 1942 में,एक संपादकीय लिखा जिसमें ब्रिटिश शासन द्वारा सेंसरशिप के समक्ष समर्पण करने की बजाय समाचार पत्र को निलंबित करने की घोषणा की थी। उन्होंने कहा‘परिस्थितिगत कटु सच्चाई यह है कि यदि हम प्रकाशित करते तो इंडियन एक्सप्रेस को समाचार पत्र नहीं बल्कि एक कागज कहा जाता।’
यह भी आज स्मरणीय है कि रामनाथजी एक सच्चे देशभक्त थे। 1936में जब उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस की स्थापना की तो यह महात्मा गांधी की एक राष्ट्रीय समाचार पत्र की एक मांग का ज़वाब था। उन्होंने देश की स्वतंत्रता और प्रेस की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी। उन्होंने औपनिवेशिक काल के दौरान और स्वतंत्रता के बाद लोकतंत्र को और सुरक्षित बनाने के लिए शासन का मुकाबला किया तथा हमारे संविधान में निहित स्वतंत्र भाषण के अधिकार की उत्साहपूर्वक रक्षा की।
इससे भी अधिक, उन्होंने यह अनुभव किया कि स्वतंत्र प्रेस के बिना लोकतंत्र कागज के कोरे टुकड़े की तरह है।
जिन आदर्शों का वह पालन करते थे, उन्हें बार-बार दोहराना चाहिए, पत्थर पर उकेरना चाहिए तथा लोकतंत्र और स्वतंत्रता के प्रेमी सभी पत्रकारों को पूर्ण समर्पित होकर उनका अनुकरण करना चाहिए।
मुझे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि इंडियन एक्सप्रेस ने रामनाथजी के सुपुत्र,श्री विवेक गोयनका के नेतृत्व में मानदंड को कायम रखा है। यह स्वतंत्रता और सत्यानुसरण के लिए औचित्य और सटीकता के प्रति अपनी निष्ठा से विचलित नहीं हुआ है। ये अप्रचलित मूल्य नहीं हैं।
वास्तव में, रामनाथजी द्वारा अपनाए गए मूल्य तब भी प्रासंगिक थे,अब भी प्रासंगिक हैं और आने वाले समय में भी प्रासंगिक रहेंगे।
इसी प्रकार, एक फोन के साथ कोई भी प्रकाशक और प्रसारणकर्ता,स्कूली अध्यापक, एक मां,एक विद्यार्थी और एक राजनीतिक कार्यकर्ता बन सकता है।
प्रौद्योगिकी ने आंकड़ों, सूचनाओं और उससे अधिक विचारों की अत्यधिक मात्रा के द्वारा जनता पर बौछार करते हुए,संप्रेषण के साधनों में असाधारण वृद्धि की है।
इसके अनेक सकारात्मक परिणाम हुए हैं, सर्वप्रथम, इसने शक्तिहीनों पर थोपी गई खामोशी की बेड़ियों को तोड़ा है। इंटरनेट और विशेषकर सोशल मीडिया द्वारा स्वतंत्रता की भावना ने यह सुनिश्चित कर दिया है कि प्रत्येक की एक आवाज़ है और सुदूर इलाकों की धीमी से धीमी आवाज़ भी सुनी जा सकती है।
औसत नागरिक बोलने और खोजने की अपनी क्षमता के मामले में सचमुच सशक्त हुआ है।
इस समग्र विकास के फलस्वरूप, सूचना तक पहुंच के संबंध में बहुलवाद और अनेकता पैदा हुई है। नई सूचनाओं का समूचा संसार वहां विद्यमान है जिससे देश के कोने-कोने के लोगों को लाभ उठाना चाहिए।
तथापि, नकारात्मक पक्ष यह है कि आंकड़ों और सूचना का विशुद्ध अनुपात और मात्रा जो आज उपलब्ध है,वह बिना छनी और बिना छंटी है। अधिकांश मामलों में यह बिना जांच के भी होती है।
संयुक्त राज्य अमरीका और फ्रांस की हाल की घटनाओं पर गौर करिए,जहां चुनाव के दौरान राजनीतिक नेताओं के निजी संदेश लीक हो गए और इंटरनेट देखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को वे आराम से उपलब्ध हो गए।
ऐसी सूचनाओं को अर्थपूर्ण बनाने के लिए उनका ध्यानपूर्वक पुनरीक्षण,जांच और पुनर्जांच की जानी चाहिए तथा उन्हें मूल्यवान बनाने या उतना ही जरूरी,उनका दुरुपयोग ना किए जाने के लिए संदर्भ से युक्त और सार्थकता प्रदान की जानी चाहिए।
जब बहुत सारे लोग माध्यमों पर बहुत सारी आवाज़ों में बोलते हैं,तो कोलाहल में कुछ आवाज़ें दब जाती हैं और इस शोर में यह सुनना या समझना मुश्किल हो जाता है कि क्या कहा जा रहा है।
यहीं पर श्रेष्ठ पत्रकारिता एक महत्वपूर्ण और विकल्पहीन भूमिका निभाती है अर्थात हस्तक्षेप करती है।
यह सभी आंकड़ों को छांटती है, तथ्यों में से, जिसे अब‘मिथ्या समाचार’कहा जाता है, को अलग करती है,सटीकता सुनिश्चित करती है तथा संदर्भ,विश्लेषण और दृष्टिकोण मुहैया करवाती है ताकि लोग बेहतर रूप से जागरूक हों और समझदारी भरे विचार सोच सकें।
संग्रह और गणना, चुनाव की विविधता का अर्थ है कि खबरों तक हमारी पहुंच उन्मुक्त और खुली हो लेकिन यह निरंतर व्यक्तिगत होती जा रही है। अब लोगों के पास,जो चाहते हैं और उससे अधिक जरूरी,जिससे वे सहमत हैं, को पढ़ने का विकल्प है।
समाचारों के पसंदीदा स्रोत की इस प्रक्रिया के रूप में,यह खतरा पैदा हो जाता है कि लोग दूसरे की बात नहीं सुनेंगे,और अपने से भिन्न नज़रिए को सुनने से इंकार कर देंगे। इससे सहमति की संभावना कम हो जाएगी और असहिष्णुता बढ़ सकती है।
जैसा कि मैंने पहले अनेक मौकों पर कहा है,भारत जैसे एक जीवंत, स्वस्थ लोकतंत्र में निर्णयन के लिए जनपरिचर्चा हेतु विचार-विमर्श,असहमति और मतभेद जरूरी हैं।
यह भारत के संविधान की आत्मा, स्वयं भारत के विचार से विपरीत होगा।
मैं मानता हूं कि भारतीय सभ्यता की आधारशिला इसका बहुलवाद और इसकी सामाजिक,सांस्कृतिक, भाषायी और जातीय विविधता में निहित रही है। जब मैं अपनी आंखें मूंदता हूं और सोचता हूं,तो विस्मित हो जाता हूं कि हमारे देश में 1.3बिलियन लोग 100 से अधिक भाषाएं बोल रहे हैं, 7प्रमुख पंथों का अनुकरण कर रहे हैं, 3प्रमुख जातीय समूहों से संबंधित हैं और एक ही तंत्र,एक ही ध्वज और भारतीय होने की पहचान के अंतर्गत रह रहे हैं। यह हमारी विविधता का गौरव है।
इसलिए हमें उन प्रभावी कथ्यों के प्रति सचेत रहना है जो असहमतियों को दरकिनार करते हुए तेज शोर मचाते हैं। इसी कारण से,सोशल मीडिया और प्रसारित समाचारों में वे उन राष्ट्रीय और गैर-राष्ट्रीय तत्वों की क्षुब्ध और आक्रामक मुद्राओं को देखते हैं जो प्रतिकूल नज़रियों के पीछे पड़ जाते हैं।
राजनीति, कारोबार या सिविल समाज के सत्ताधीन व्यक्ति अपनी हैसियत के प्रभाव से विचार-विमर्श पर हावी होना है और इसकी दिशा पर असर डालना चाहते हैं।
प्रौद्योगिक उन्नति के कारण, अब वे कांट-छांट और हस्तक्षेप की इस महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया से पूरी तरह बचते हुए अपने दर्शकों तक सीधे पहुँच सकते हैं।
यह अक्सर ताकतवर की तुलना में कम ताकतवर तक केवल एकतरफा संवाद तथा कथ्य को एक ही दिशा में मोड़ने की कोशिश बन जाती है। भारतीय सभ्यता ने सदैव बहुलता की सराहना की है और सहिष्णुता को प्रोत्साहन दिया है। ये जनता के रूप में,हमारे अपने अस्तित्व के मूल केंद्र में रहे हैं और हमारी अनेक मतभिन्नताओं के बावजूद सदियों से हमें सूत्रबद्ध किए हुए है। जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था,हमें उखड़े बिना ‘ताजी हवाओं के लिए झरोखे खोल देने चाहिए’।
इसलिए हमारे राष्ट्र के संरक्षण और एक सच्चे लोकतांत्रिक समाज के लिए सत्तासीन जन से प्रश्न पूछने की जरूरत है।
यही भूमिका है जिसे मीडिया ने पारंपरिक रूप से निभाया है और निभाते रहना चाहिए।
दलों से लेकर व्यावसायिक मुखियाओं, नागरिकों से लेकर संस्थाओं तक लोकतांत्रिक प्रणाली में सभी भागीदारों को यह अनुभव करना चाहिए कि प्रश्न करना सही है,प्रश्न करना उचित है और वास्तव में हमारे लोकतंत्र की सेहत के लिए आवश्यक है।
अब उपलब्ध अनेक प्रकार के माध्यमों की वजह से इस सूचना के प्रमुख स्रोत की भूमिका कम हो गई है,इसलिए मीडिया के अन्य दायित्व बढ़ गए हैं,इसे प्रहरी, सचेतक तथा नेताओं और जनता के बीच मध्यस्थ बनना चाहिए।
इसे लोक कल्याण से जुड़े मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ानी और पैदा करनी चाहिए,सार्वजनिक और निजी संस्थाओं और उनके प्रतिनिधियों को उनके सभी कार्यों और वस्तुत: उनकी निष्क्रियता के लिए जिम्मेदार ठहराना चाहिए।
विशेषत:, मीडिया का कर्त्तव्य उन करोड़ों लोगों को स्थान देना है जो अभी भी अभाव,लैंगिक असमानता, जाति और सामाजिक संकीर्णता के अन्याय का सामना कर रहे हैं।
मेरा मानना है कि मीडिया को जनहित की रक्षा करनी चाहिए और हमारे समाज के पिछड़ों को स्वर देना चाहिए। हमारे लोग काफी असमानताओं का सामना करते हैं जिन्हें मीडिया द्वारा निरंतर व्यक्त करने और उजागर करने की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि प्रशासक उनकी ओर ध्यान दे रहे हैं।
मीडिया एक तरफा संवाद को किसी भी प्रकार से सत्ता का प्रयोग करने वालों और औसत नागरिकों के बीच एक बहुआयामी,बहुपरतीय बातचीत करने में मदद कर सकता है। यह एक ऐसे आम रास्ते का निर्माण कर सकता है,जहां विचार ऊपर-नीचे, आगे-पीछे विचरण कर सकें क्योंकि यह सार्वजनिक जीवन में निरंतर ज़वाबदेही और पारदर्शिता का प्रयास करता है।
मैंने पहले भी उल्लेख किया है कि मीडिया भारतीयों को जागरूक करने और भिन्न विचारों की अभिव्यक्ति को स्थान देने में एक अहम भूमिका निभा सकता है। सभी को स्वर देने की यह भूमिका एक ऐसे माहौल में पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है जहां हमारे ध्यानाकर्षण के रास्ते में बहुत अधिक शोरगुल भरी खींचतान है।
इसी प्रकार, मीडिया को पहले से अधिक दायित्व के साथ और तथ्यों के लिए परम सम्मान की भूमिका निभानी होगी। मैं मानता हूं कि तथ्य की जांच एक अत्यंत अहम भूमिका है जिसे मीडिया समसामयिक परिवेश में जहां यत्र-तत्र अतिशय विचार, जिन्हें अब‘वैकल्पिक तथ्य’कहा जाता है, मौजूद रहते हैं।
जब विचार सार्वजनिक महत्त्व के मुद्दे,चाहे वे शासन, विधि,सामाजिक परिवर्तन अथवा व्यक्तिगत आस्था और आचरण से संबंधित हों,पर बहुत अधिक बंटे हों तो निष्पक्षता सर्वोपरि होती है। तथ्यों को कदापि सच्चाई के रूप में बुलंद विचारों की भेंट नहीं चढ़ाना चाहिए।
ऐसी स्थिति में, पत्रकारों को तथ्यों को हासिल करने और उनकी शुद्धता बनाए रखने के लिए प्रयास करने चाहिए,मैं जानता हूं कि आप ऐसा करते हैं।
कार्यकौशल के उच्च मानदंडों के योग्य बनने के लिए,पत्रकारों और मीडिया संगठनों को स्वयं पर ध्यान देना चाहिए। उन्हें उन्हीं मानदंडों का पालन करना चाहिए जिनकी वे दूसरों से अपेक्षा करते हैं।
‘समाचारों के लिए अदायगी’का खतरा सदैव बना रहता है । मीडिया के स्वामित्व और वितरण आधारों का कुछ हाथों में सीमित हो जाने से,पत्रकारों के व्यक्तिगत सिद्धांत आपस में टकरा सकते हैं,और टकराते हैं। इससे भी मीडिया का बहुलवाद और विविधता का हृस होता है। जनता का भरोसा दोबारा कायम करने के लिए निष्पक्षता को बढ़ाना होगा।
जैसा कि रामनाथजी ने हमें बताया है कि समाचार कक्ष में स्वतंत्रता के स्तर के लिए मालिक अथवा प्रकाशक का नैतिक साहस अत्यावश्यक होता है।
मीडिया के विकास का विशुद्ध स्तर और विविधता विस्मयकारी रही है और इसके अपने परिणाम रहे हैं। भारत में पहले से ही400 मिलियन इंटरनेट प्रयोक्ता, 300मिलियन स्मार्टफोन प्रयोक्ता, 200मिलियन के करीब फेसबुक और व्हाट्सएप प्रयोक्ता हैं जबकि ट्वीटर सबसे तत्काल सूचना और दृष्टिकोण का स्रोत बन चुका है।
मीडिया ने भी निरंतर प्रगति की है परंतु उस अनुपात में नहीं की है। प्रिंट मीडिया पांच प्रतिशत की बेहतर दर से बढ़ता रहा है,क्षेत्रीय भाषा की प्रेस इस विकास की अग्रणी रही है। 400 से अधिक टीवी चैनल हैं जो समाचार प्रदान करते हैं तथा सभी क्षेत्रों और भाषाओं में 150से अधिक विशिष्ट समाचार चैनल भी मौजूद हैं।
मीडिया केंद्रों की इस प्रचुरता ने एक बहुत अधिक स्पर्द्धात्मक मीडिया वातावरण बना दिया है जिससे दूसरों के बीच से उठने वाली धीमी आवाज़ भी सुनी जाती है। दर्शकों को आकर्षित करने के लिए,समाचारों का अपरिष्कृत होना मीडिया की प्रमुख वृद्धि का कारण है।
इन बाध्यताओं के इकट्ठी होने से जटिल मुद्दे दोहरे विरोधी छोर पर आ जाते हैं जिससे विचार भिन्नता होती है और तथ्य विकृत हो जाते हैं।
मीडिया घरानों को स्वयं से पूछना चाहिए कि वे सतत आर्थिक मॉडल कैसे बनाएं,उनसे वे सभी प्रकार के दबावों को रोक सकें और अपनी भूमिका ईमानदारी और पारदर्शिता के साथ निभा सकें।
हम वैश्विक और राष्ट्रीय रूप से चुनौतीपूर्ण दौर में रह रहे हैं। भारत में साक्षरता और प्रौद्योगिकी के जरिए जागरूकता बढ़ने और फैलने के कारण लोगों की आकांक्षाएं बढ़ गई हैं।65 प्रतिशत से अधिक भारतीयों की युवा और सक्रिय आबादी35 वर्ष की आयु से कम है जो उस भविष्य की ओर उत्सुकता से ताक रही है जो उनकी अभिलाषाओं को पूरा करने के पर्याप्त अवसर प्रदान करेगा।
युवाओं द्वारा भविष्य की ओर देखने पर,पिछले कुछ वर्षों के दौरान जन विमर्श में अतीत के बारे में काफी शंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। प्रत्येक पीढ़ी को पीछे मुड़कर देखने और अतीत के गुणों और अवगुणों का मूल्यांकन करने का अधिकार है। एक साहसी नए भारत को स्वयं निष्कर्ष निकालने दें।
यद्यपि ऐसी जांच-पड़ताल संकीर्णताओं से बाधित अथवा बंद दिमाग द्वारा अवरुद्ध नहीं करनी चाहिए। भारतीय इतिहास और सदियों पुरानी सभ्यता जैसा कि मैंने कहा है,लोगों की बौद्धिक शंका, असहमति और विवाद की इच्छा के उदाहरणों से भरा हुआ है। यह हमारे राष्ट्र की आधारशिला है;हमारा संविधान भारत के एक अति महत्त्वपूर्ण वैचारिक रूप-रेखा के भीतर हमारे मतभेदों के समायोजन का एक वसीयतनामा है। एक दूसरे तथा हमसे भिन्न लोगों के प्रति सहिष्णुता और सामंजस्य की हमारी भावना से ही हम भारतीय बनते हैं। यह पीढ़ियों से हमारी सभ्यता के अस्तित्व का मूल मंत्र बन गया है।
प्रिय मित्रो,
प्रेस और मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ माना जाता है। ये ना केवल अन्य तीन स्तंभों को ज़वाबदेह बनाने बल्कि जनमत को प्रभावित और उन्हें आकार देने की उस असाधारण शक्तियों का प्रयोग करते हैं जिन्हें लोकतंत्र की कोई अन्य संस्था नहीं कर सकती है। जबकि इस वृहद शक्ति को कायम रखने के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल सिद्धांतों की आवश्यकता है। इसी तरह मीडिया पर ज़वाबदेही और विश्वसनीयता का भारी दायित्व भी है। मेरे विचार से इन शक्तियों पर प्रश्न ना करने से प्रेस अपने कर्त्तव्य से चूक जाएगा और साथ ही इसे तथ्यों के उतावलेपन और रिर्पोटिंग से प्रचार के बीच परख करनी होगी।
मीडिया के लिए यह एक भीषण चुनौती है और उसे इसके विरुद्ध खड़ा होना चाहिए। इसे कम विरोध का रास्ता अपनाने से बचना होगा जिससे कोई प्रभुत्वकारी नज़रिया बिना प्रश्न या दूसरों को इस पर प्रश्न करने के मौके दिए बिना व्याप्त न रहे।
मीडिया को मुक्त और निष्पक्ष रिपोर्टिंग के प्रति अपनी निष्ठा गंवाए बिना खिंचावों और दबावों को झेलने की कला सीखनी चाहिए और सदैव सादृश्यता के विरुद्ध रक्षा करनी चाहिए। सादृश्यता के प्रति किसी भी प्रवृत्ति को थोपने के कारण अकसर सच्चाइयां और तथ्य छिप जाते हैं और भटक जाते हैं। यह पूरी तरह उन आदर्शों के विपरीत है जिनके लिए जागरूक पेशेवर पत्रकारिता तथ्यों और सच्चाइयों की तलाश के लिए जीती और मरती है।
प्रश्न यह है कि मीडिया सहित हम सभी जिस प्रश्न का सामना करते हैं कि क्या हम विचारों की अनेकता द्वारा समृद्ध एक राष्ट्र के रूप में स्वयं को परिभाषित करना चाहेंगे या हमारी राष्ट्रीय गाथा पर हावी होने के लिए पक्षपाती विचारों को प्रश्रय देंगे।
हमें यह याद रखना चाहिए कि यदि हम दूसरों की बजाय अपनी ही आवाज सुनेंगे तो लोकतंत्र पराजित हो जाएगा।
सदियों से, भारत ने सभ्यताओं और दार्शनिक विचारों का संघर्ष देखा है और यह उनके बीच अस्तित्व कायम रखते हुए,विश्व के विशालतम सक्रिय लोकतंत्र के रूप में विकसित हुआ है।
एक राष्ट्र के रूप में अग्रसर होने पर,हम परस्पर विरोधी शक्तियों का सामना करते हैं: एक ओर,प्रगति और समृद्धि वाली अपार संभावनाओं वाला देश है;दूसरी ओर संसाधनों और अवसरों के असमान वितरण की बढ़ती हुई सच्चाई है। मीडिया को दोनों को बराबर प्रतिबिंबित करना चाहिए परंतु ऐसा वह तभी कर सकती है जब वह जमीनी वास्तविकता को सच्चे अर्थों में दर्शाए।
ऐसी वास्तविकता ऐसा अखाड़ा बन जाती है जहां भिन्न-भिन्न विचार,सुने जाने के लिए संघर्ष करते हैं। क्या मीडिया बुनियादी स्तर पर आवाज़ को सुनेगा?क्या यह एक ऐसा मंच बना रहेगा जहां लोग बहस करते हैं,असहमत होते हैं, विरोध करते हैं?
यदि मीडिया रामनाथ गोयनका की तरह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता,एक मुक्त और निर्भय स्वतंत्र मीडिया में विश्वास रखती है तो इसे ऐसे विचारों की बहुलता को प्रदर्शित करना चाहिए जिससे हमारे लोकतंत्र में प्राणों का संचार होता है और जो हमें भारतीयों के रूप में परिभाषित करती है। इसे सदैव याद रखना चाहिए कि इसका मूल कार्य ईमानदारी और निष्पक्षता के साथ डटे रहना और प्रश्न करना है। यही एक लोकतंत्र के नागरिकों के साथ इसका पवित्र समझौता है।
धन्यवाद,
जय हिन्द।