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बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के विशेष दीक्षांत समारोह के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

वाराणसी, उत्तरप्रदेश : 25.12.2012



महान राष्ट्रभक्त महमना पंडित मदन मोहन मालवीय जी की 150वीं जन्म शताब्दी के अवसर पर वर्ष भर आयोजित समारोहों के समापन के अवसर पर उनके द्वारा स्थापित ज्ञान की इस प्रसिद्ध पीठ में आकर बहुत मुझे प्रसन्नता हो रही है।

यह हम सभी के लिए बहुत खुशी का क्षण है क्योंकि हम अवसर पर नेपाल के माननीय राष्ट्रपति को विश्वविद्यालय की उच्चतम उपाधि प्रदान कर रहे हैं जिसके साथ हमारी गहरी सांस्कृतिक निकटता तथा ऐतिहासिक संबंध हैं। वास्तव में काशी और वाराणसी का, नेपाल के लोगों के साथ प्राचीन संबंध है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय ने अपनी शुरुआत से ही इस परंपरा को जारी रखा है और नेपाल से विद्यार्थी सदैव यहां अध्ययनरत रहे हैं। इसके पूर्व-विद्यार्थियों में नेपाल के बहुत से नेता, मंत्री, सांसद, न्यायाधीश, शिक्षाविद्, सार्वजनिक विभूतियां तथा नागरिक हैं। यह वास्तव में सर्वाधिक उपयुक्त है कि हम अपने नजदीकी पड़ोसी और इस महान देश के प्रथम नागरिक को सम्मानित कर रहे हैं।

यह भी बहुत खुशी की बात है कि इस विश्वविद्यालय ने महामना की परिकल्पना और उनके विचारों को बढ़ावा देने के लिए दो अत्यंत जरूरी अन्तर-विधा केंद्र अर्थात् मालवीय मानवीय मूल्य और नैतिकता केंद्र तथा अन्तर सांस्कृतिक अध्ययन केंद्र स्थापित किए हैं। ये महामना के महान मिशन को जीवित रखने का प्रयास है। इसलिए मुझे आज इन केंद्रों के निर्माण की आधारशिला रखते हुए खुशी हो रही है जिन्हें मालवीय विरासत परिसर में स्थापित किए जाने का प्रस्ताव है।

धरती के सच्चे लाल, मालवीय जी ने अपना पूरा जीवन राष्ट्र सेवा में समर्पित कर दिया, एक राजनेता, विद्वान, शिक्षाविद्, पत्रकार, समाज सुधारक तथा विधिनिर्माता के रूप में आधुनिक भारत के निर्माण में उनका और असीम और विविध योगदान रहा है। वे आधुनिक भारत के अग्रगण्य निर्माताओं में से थे और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के महत्वपूर्ण नेता थे। मैं पंडित जवाहरलाल नेहरू के उन शब्दों को याद करना चाहूंगा जो उन्होंने मालवीय जी को हार्दिक श्रद्धाजंलि देते हुए कहे थे, ‘‘एक ऐसा विशाल मानव, जो आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की नींव डालने वालों में से एक था तथा जिसने वर्ष भर, एक-एक ईंट और पत्थर को जोड़कर भारतीय स्वतंत्रता की इमारत का निर्माण किया था।’’

एक बुद्धिजीवी और वैश्विक शांति तथा अन्तर सांस्कृतिक सौहार्द के व्यावहारिक हिमायती, महामना ने पूर्वी शिक्षा तथा पश्चिमी वैज्ञानिक ज्ञान में जो कुछ सर्वोत्तम था, उसका उपयोग करने का प्रयास किया। उन्होंने शिक्षा का एक सर्वांगीण ढांचा तैयार करके उसे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, जिसका स्थापना उन्होंने 1916 में की थी, के माध्यम से वास्तविकता में बदलने का प्रयास किया।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय भारत का प्रथम एक-परिसरीय तथा आवासीय शिक्षण विश्वविद्यालय था जिसे महामना जी द्वारा इकट्ठा किए गए सार्वजनिक दान से स्थापित किया गया था। यह भारत में उच्च शिक्षा में सामुदायिक सहभागिता का भी पहला उदाहरण है। इस विश्वविद्यालय की स्थापना, प्राचीन परंपराओं तथा आधुनिक संकल्पनाओं के बीच तालमेल के लिए तथा भारतीय प्रज्ञा का पश्चिमी ज्ञान के साथ समरसता के लिए की गई थी। इस प्रकार ज्ञान की यह महान पीठ न केवल भारतीय प्रज्ञा की अभिव्यक्ति का प्रतीक थी बल्कि यह राष्ट्रवाद तथा सार्वभौमिक मूल्यों की समग्र परिकल्पना का समावेश करने का भी केंद्र बन गयी। देश की ओर से इस महान राष्ट्रभक्त के कार्यों की प्रशंसा करते हुए महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘मालवीय जी की देश को सेवाएँ महान हैं और मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय उनकी महानतम् सेवा है तथा उन्होंने उस काम को करते हुए खुद को थका डाला, जो कि उन्हें अपने जीवन के समान ही प्रिय है।’’

मुझे यह देखकर खुशी हो रही है कि मालवीय जी का यह स्वप्न, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, धीरे-धीरे मजबूती प्राप्त करते हुए शीघ्र ही अपनी शताब्दी पूरी करने जा रहा है। अब यह भारत के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में से है और इसमें सबसे अधिक अकादमिका विधाएं और विभाग हैं। इसके लब्धप्रतिष्ठ पूर्व-विद्यार्थी दूर-दूर तक फैले हैं तथा उन्होंने देश और समाज के लिए प्रशंसा कमाई है।

विश्वविद्यालय ज्ञान तथा उसके प्रसार का स्रोत होते हैं। उन्हें सर्वांगीण मानवीय तथा सामाजिक विकास की जरूरतों को पूरा करने के लिए नए परिप्रेक्ष्य तलाश करने होंगे तथा नई जिम्मेदारियां उठानी होंगी। इस मायने में उच्च शिक्षा को वैज्ञानिक ज्ञान तथा जरूरतों के बीच सेतु का काम करना चाहिए। महामना का यह मानना था कि विद्यार्थियों में मानवीय मूल्यों तथा सामाजिक दायित्वों का समावेश किया जाना चाहिए। उनके शब्दों में, ‘कोई भी विश्वविद्यालय तब तक अपना आधा कार्य ही पूरा कर पाएगा, जब तक वह अपने विद्यार्थियों के दिलों की ताकत का विकास करने का प्रयास भी उसी उत्सुकता से नहीं करता जितना उत्सुकता से वह उसकी मानसिक ताकत का विकास करता है।’’ काफी बाद में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भी विश्वविद्यालयों की भूमिका और उत्तरदायित्वों पर इसी तरह के विचार व्यक्त किए थे। उन्होंने कहा था, ‘‘एक विश्वविद्यालय मानवीयता, सहिष्णुता, तार्किकता, विचारों के आंदोलन तथा सत्य की खोज का केंद्र होता है। वह मानव जाति के, आगे और अधिक उच्च उद्देश्यों की ओर प्रस्थान का भी केंद्र होता है। यदि विश्वविद्यालय अपने दायित्व उचित रूप से पूरा करते हैं तो यह देश और लोगों के लिए ठीक होगा।’’

मालवीय जी ने अध्ययन और विद्वता के सार्वभौमिक प्रसार को बहुत अधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि शिक्षा राष्ट्रीय गौरव को पुनर्जाग्रत करने का एकमात्र रास्ता है तथा वे इसे सामाजिक तथा सांस्कृतिक बदलाव का साधन मानते थे। उनकी महत्वाकांक्षा तथा मुखर नजरिया उनके इन शब्दों से उजागर होता है, ‘‘हमें खर्च करने के लिए पर्याप्य धन सहित शिक्षा का दायित्व सौंप दिया जाए तो मैं भारत के अपने सभी सहयोगी शिक्षाविदों की ओर से यह वायदा करता हूं कि थोड़े ही वर्षों के अंदर हम इस धरती से निरक्षरता को उखाड़ फेंकेंगे और अपने लोगों के बीच शिक्षा और नागरिकता के विचारों का ऐसा प्रसार कर देंगे कि सांप्रदायिकता की धुंध, राष्ट्रवाद के सूरज के आगे छंट जाएगी, जिसे अपने सभी लोगों के दिलों में समावेश करने का हमारा प्रयास होगा।’’ यह तथ्य कि निरक्षरता अभी भी समाप्त होनी है और सांप्रदायिकता खत्म होनी है, हमें अपने सामने इस अधुरे कार्य की याद दिलाती है।

एक दीक्षांत भाषण में उन्होंने दो प्राचीन उक्तियां कही थी जो कि पूरी मानवता तथा सभी धर्मों के लिए आचरण संहिता का निर्धारण करती हैं, वे हैं, ‘हमें दूसरों के साथ ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए जैसा व्यवहार यदि हमारे साथ होता है तो हमें वह नापसंद हो’’ तथा ‘हम अपने लिए जैसा चाहते हैं दूसरों के लिए भी वैसा ही चाहें।’’

महामना महिला शिक्षा के बड़े हिमायती थे। उन्होंने कहा था, ‘‘हमारी महिलाओं की शिक्षा उससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जितनी कि हमारे पुरुषों की। वे भारत की भावी पीढ़ी की माताएं हैं।’’ इसी परिकल्पना के साथ उन्होंने इस विश्वविद्यालय में महिला कॉलिज की स्थापना की। महिला शिक्षा और सशक्तीकरण पर महामना द्वारा दिए गए बल से हमें इस दिशा में प्रयासों में तेजी लाने की प्रेरणा मिलनी चाहिए। कृपया मुझे इस अवसर पर हमारी राजधानी दिल्ली में एक 23 वर्षीय लड़की पर पाशविक आक्रमण की हाल ही की घटना पर गहरी वेदना तथा निराशा व्यक्त करने की अनुमति दें। मेरा ह्ृदय उस नवयुवती तथा उसके परिवार की पीड़ा महसूस कर रहा है जिसने बदतरीन संकट में असाधारण हिम्मत दिखाई है और मैं आप सबसे अनुरोध करता हूं कि उसके तेजी से स्वस्थ होने के लिए मेरे साथ प्रार्थना करें।

देश ने दिल्ली की गलियों और देश के अन्य शहरों में, महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के और अधिक मजबूत उपाय करने तथा हमारी महिलाओं के लिए खतरा बने अपराधियों को निवारक दंड देने के लिए कठोर कानून की मांग करते हुए हमारे युवाओं के गुस्से और क्षोभ को देखा है। मुझे विश्वास है कि सरकार यह सुनिश्चित करने के सभी जरूरी उपाय करेगी, जिससे महिलाएं सुरक्षित और निरापद महसूस करें। मैं अपने युवा मित्रों से यह भी कहना चाहूंगा कि उनका क्रोध उचित है। मुझे आपके मन की वेदना का आभास है परंतु कृपया ध्यान रखें कि हिंसा से कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता। कृपया अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखें तथा समझदारी से काम लें। समग्र समाज को इस बुराई को समाप्त करने का प्रयास करना होगा।

एक समाज के रूप में, हमें महिलाओं के बारे में नकारात्मक धारणाओं को बदलने का प्रयास करना चाहिए। महिलाओं के साथ सम्मानजनक व्यवहार होना चाहिए और उन्हें एक सुरक्षित, निरापद और सौहार्दपूर्ण माहौल प्रदान करना चाहिए जिसमें उनकी प्रतिभा फल-फूल सके और वे राष्ट्र निर्माण में पूरी क्षमता से योगदान दे सकें। हमारे इतिहास, परंपराओं, धर्मों और सांस्कृतिक मूल्यों और संविधान की हमसे बहुत अपेक्षाएं हैं। मुझे उम्मीद है कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय जैसे प्रतिष्ठित संस्थान के शिक्षक और विद्यार्थी लैंगिक मुद्दे पर समाज में जागरूकता फैलाने और उसे संवेदनशील बनाने के लिए आगे आएंगे।

मानवीय मूल्य और नैतिकता तथा अंतर सांस्कृतिक अध्ययन पर प्रस्तावित केन्द्र सामयिक और नवान्वेषी हैं। शिक्षा की मुख्य धारा में मानव मूल्यों और नैतिकता का एकीकरण तथा बहुलवादी परंपरा के प्रति सहिष्णुता व सम्मान का समावेशन आज अत्यंत आवश्यक हो गया है। मैं, संस्कृति मंत्रालय तथा डॉ. कर्ण सिंह की अध्यक्षता में राष्ट्रीय कार्यान्वयन समिति की मदद से, इस सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य को अपने हाथ में लेने के लिए विश्वविद्यालय को बधाई देता हूं। यह उपयुक्त है कि इन केन्द्रों के साथ-साथ, समाज और मानव खुशहाली को बढ़ाने के लिए और विशेषकर, युवाओं में मूल्यों, नैतिकता और अधिकारों के प्रति जागरूकता व निष्ठा पैदा करने के लिए महामना की कृतियों का अभिलेखागार तथा उनके विचारों व संकल्पना के प्रचार के लिए एक विशेष वेबसाइट तैयार की जाएगी।

शेष एशिया, विशेषकर अपने दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशियाई पड़ोसियों के साथ भारत के सांस्कृतिक एकीकरण तथा परस्पर समृद्धि और पोषण के साधन के रूप में उनके बीच संवाद प्रोत्साहित करने के महामना के स्वप्न को विश्वविद्यालय के महत्त्वपूर्ण एजेंडा के रूप में शुरू किया गया है। ऐसे संवाद शताब्दियों से विद्यमान साझे सांस्कृतिक सम्बन्धों का नवीकरण करेंगे और उन्हें मजबूत बनाएंगे। हम इस 21वीं शताब्दी को एशियाई शताब्दी बनाने की दिशा में तभी अग्रसर हो सकते हैं जब हम ज्ञान और परस्पर सद्भावना के आधार पर रिश्ते बना सकें। मुझे खुशी है कि महामना की 150वीं जन्म वर्षगांठ के अवसर पर, विश्वविद्यालय का प्रस्ताव इस संकल्पना का अन्य क्षेत्रों में विस्तार करने का है।

150वीं जन्म वर्षगांठ, महामना मालवीय जी के विचारों, परिकल्पना और कार्यकलापों का स्मरण करने, उन्हें सहेजने और अनुकरण करने का अवसर है। यह अपने समय के सबसे शक्तिशाली दूरद्रष्टा और राष्ट्रवादी नेता के प्रति सर्वोत्तम श्रद्धांजलि होगी।

मैं बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, जो महामना की परिकल्पना का एक स्थायी स्मारक है, से आग्रह करता हूं कि वह भारतीय संस्कृति और नैतिक शिक्षा पर आधारित शिक्षा के माध्यम से हमारे युवाओं का मजबूत राष्ट्रीय चरित्र निर्मित करने के प्रयास जारी रखें।

धन्यवाद,

जय हिंद!