1. भारतीय दण्ड संहिता (आईपीसी) की 155वीं वर्षगांठ के समापन समारोह में भाग लेने पर मैं प्रसन्न हूं। सर्वप्रथम,मैं अभियोग निदेशालय, केरल को बधाई देता हूं जिसके तत्वावधान में यह समारोह मनाया जा रहा है।
2. आईपीसी एक ब्रिटिश साम्राज्य का विधायी व्यवस्था-पत्र है जो अपनी निष्पक्ष शुद्धता के कारण,कठिन समय का साक्षी रहा है। जैसा कि जेम्स स्टीफन ने एक कड़े कानून की गुणवत्ता के बारे में उल्लेख किया था, ‘‘यह पर्याप्त नहीं है कि एक यथार्थ की ऐसी डिग्री हासिल की जाए जिसे एक व्यक्ति नेक नीयत से पढ़कर समझ सके। यह आवश्यक है कि यथार्थ की ऐसी डिग्री हासिल की जाए जिसके एक व्यक्ति बदनीयत से पढ़कर भी ना समझ सके।’’आईपीसी में अपराधों की परिभषाएं आज भी सच हैं यद्यपि कुछ अपराधों का संदर्भ और नए अपराधों जैसे साइबर अपराध के शोधन की आवश्यकता है।
देवियो और सज्जनो,
3. नागरिकों की और संपत्ति की संरक्षा किसी भी राज्य का एक अनिवार्य कार्य है। इसे आपराधिक कानून के साधन द्वारा पूरा किया जा सकता है। आपराधिक कानून का अधिदेश अपराधियों को दण्ड देने और अपराध की पुनरावृत्ति से बचना है। आपराधिक कानून सामाजिक ढांचे और सामाजिक दर्शन के बदलाव के प्रति आवश्यक रूप से संवेदनशील होना चाहिए। इसमें समकालीन सामाजिक चेतना का प्रतिबिंब और सभ्यता का सच्चा दर्पण हो जो उन मौलिक मूल्यों को रेखांकित करे जिन पर यह टिका हुआ है। इसी दृष्टिकोण से,आईपीसी के प्रारूपण, निरूपण और कार्यशैली को देखने की आवश्यकता है।
4. भारतीय दण्ड संहिता का प्रारूपण भारत के स्वतंत्रतापूर्व प्रथम कानून आयोग द्वारा किया गया था। इस एकक के अध्यक्ष श्री लॉर्ड मैक्युले थे और इसमें जे.एम. मैक्लायड,जी.डब्ल्यू एण्डरसन और एफ. मिल्लेट सदस्य थे। उन्होंने केवल अंग्रेजी और भारतीय नियम और विनियम ही नहीं बनाए बल्कि एडवर्ड लिविंग स्टोन लुईसियाना सिविल कोड, 1825और नैपोलियनिक कोड भी बनाया। वर्ष 1837में गवर्नर जनरल के समक्ष प्रस्तुत किए गए प्रारूप कोड को श्रेष्ठ विधिवेत्ताओं,न्यायाधीशों और प्रोफेसरों द्वारा संशोधित किया गया। संशोधन1850में पूरा हुआ। इसे 1856 में विधायी परिषद के समक्ष प्रस्तुत किया गया और1860 में पारित किया गया। दण्ड संहिता1 जनवरी, 1962में प्रचालन में आई।
देवियो और सज्जनो,
5. आई पी सी का उद्देश्य भारत के लिए सामान्य दण्ड संहिता की व्यवस्था करना है। यह उन अपराधों से संबंधित कानूनों को संहिताबद्ध करता है जिनका यह निपटान करता है। संहिता को26 अध्यायों में विभाजित किया गया है। यद्यपि मूल रूप से इसके23 भाग थे। संहिता में ब्यौराकृत अपराध दो वर्गों में विभक्त है (i)राज्य और जनता के प्रति अपराध और (ii)व्यक्ति और संपत्ति के प्रति अपराध। इस संबंध में,आईपीसी के पास सिविल कानून की तरह ही वर्गीकरण का विकल्प है।
6. सार्वजनिक और निजी अपराधों में इस विभाजन को प्रतिष्ठित निर्णायक समिति द्वारा स्वीकृति प्राप्त है जो नागरिक कर्त्तव्य को पूर्ण और संबद्ध कर्त्तव्यों के विभाजन के संदर्भ द्वारा उचित ठहराती है। पूर्ण कर्त्तव्य वे हैं जो विषय राज्यों से संबंधित हैं और जिनके उल्लेख से राज्य के प्रति अपराध जनित होता है। संबद्ध कर्त्तव्य ऐसे कर्त्तव्य हैं जो विषय परस्पर से संबंधित होते हैं और जिनके उल्लंघन से वे अपराध जनित होते हैं जो आवश्यक रूप से विशिष्ट व्यक्ति के अधिकारों को शामिल करते हैं।
7. पूर्ण कर्त्तव्यों के अतिक्रमण से पूरे समुदाय पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है और इसलिए इस श्रेणी में हुए अपराध एक नियम के रूप में समझौते के अयोग्य हैं। दूसरी ओर,किसी विशेष व्यक्ति को प्रभावित करने वाले अपराध तभी तक समझौते के योग्य हैं जब तक कि वे अपनी क्रूरता से समुदाय को इतना प्रभावित न कर दे कि उन्हें समझौते के अयोग्य घोषित किया जाए।
देवियो और सज्जनो,
8. भारत का संविधान 26जनवरी, 1950 से लागू हुआ। इस नोबल दस्तावेज के अंतर्गत देश के नागरिक कुछेक गारंटीकृत अधिकारों के दावेदार थे। इसमें निजी व्यक्तियों और जनता के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा के अभय-पत्र भी थे। संविधान में किए गए ये प्रावधान एक विस्तृत फ्रेमवर्क को प्रतिबिंबित करते हैं जो आईपीसी के ब्यौरे में रेखांकित हैं। उदाहरण के लिए किसी व्यक्ति और जनता पर प्रहार को आईपीसी में परिभाषित किया गया है। भिन्न-भिन्न अपराधों के लिए भिन्न-भिन्न न्यायालयों और प्रक्रियाओं की व्यवस्था की गयी है।
9. इसमें कोई संदेह नहीं है कि आपराधिक कानून के प्रीमियर कोड के रूप में आईपीसी विधान का एक मॉडल पीस है। तथापि, 21वीं सदी की बदलती आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इसमें सम्यक संशोधन की आवश्यकता है। पिछले 155 वर्षों में आईपीसी में बहुत कम बदलाव हुए हैं। अपराध की आरंभिक सूची में बहुत कम अपराध जोड़े गए हैं और दण्डनीय घोषित किए गए हैं। आज भी संहिता में ऐसे अपराध हैं जो ब्रिटिश द्वारा अपने उपनिवेशवाद संबंधी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बनाए गए थे। अभी भी,बहुत से ऐसे नए अपराध हैं जिन्हें उपयुक्त रूप से परिभाषित किया जाना है और संहिता में सम्मिलित किया जाना है।
देवियो और सज्जनो,
10. हमारे जैसे विकासशील देश में,जहां समेकित विकास और राष्ट्रीय प्रगति के लिए आर्थिक सफलता महत्त्वपूर्ण है,हमारे राष्ट्रीय उद्देश्यों में आर्थिक अपराधों को बाधा डालने की अनुमति नहीं दी जा सकती। विश्वास संबंधी किया गया अपराध भी राज्य और इसकी जनता के प्रति अपराध है। कुछ आर्थिक अपराध अन्य ऐसे अपराधों की तरह गंभीर होते हैं जिन्हें आईपीसी में बड़ी बारीकी से परिभाषित किया गया है और सावधानीपूर्वक सूचीबद्ध किया गया है। नए युग के अपराधों को उनकी पेचीदगियों के साथ आपराधिक कानून की सीमा में लाना एक चुनौती है।
11. यह शताब्दी मानव सहक्रिया और आदान-प्रदान के वृहत दायरों में प्रौद्योगिकी के प्रसार को साक्षी है। इसके परिणाम बड़े हैं परन्तु साथ ही,इसने नए प्रकार के अपराधों को भी जन्म दिया है। साइबर स्पेस जैसे स्पूफिंग,वित्तीय घोटाले, आन लाइन जुआ,मेच फिक्सिंग, साइबर डिफेमेशन और साइबर स्टाकिंग कानून निर्माताओं से सरल और सक्रिय उत्तर की मांग कतरे हैं।
देवियो और सज्जनो,
12. ‘कानून का नियम’वह प्रमुख सिद्धांत है जिस पर आधुनिक राष्ट्र टिका हुआ है। इसे हर समय कायम रखना चाहिए। यह नियम लागू करने वाली एजेंसियों,विशेषकर पुलिस बल का कर्त्तव्य है कि वे कानून और व्यवस्था के सर्वप्रथम कर्त्तव्य की पूर्ति गंभीरता और समर्पण से करें। पुलिस की छवि कानून लागू करने,तत्परता, निष्पक्षता और न्यायोचित प्रवर्तन सुनिश्चित करने की उनकी कार्रवाई पर निर्भर करती है। हमारे देश में कानून प्रवर्तन एकक होने के नाते पुलिस को अपनी भूमिका से बढ़कर भी कार्य करना चाहिए। इसकी प्रगति और विकास में भी सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए। हमारे संविधान के संस्थापकों ने समेकन,सहिष्णुता, आत्म-नियंत्रण,ईमानदारी, अनुशासन,सम्मान और महिलाओं, वरिष्ठ नागरिकों और कमजोर वर्गों के संरक्षण को हमारे लोकतंत्र के अनिवार्य अवयवों की कल्पना की थी। हमारी पुलिस को इन अवयवों को अपनी कार्य प्रणाली में शामिल करना चाहिए।
13. हमारी कानून प्रवर्त्तक एजेंसियों पर यह भार है कि वे‘प्राचीन पुलिस प्रणाली’के बदलाव की दिशा में कार्य करें और इसे आधुनिक लोकतांत्रिक राष्ट्र की आवश्यकतानुसासर बनाएं। हमारे पुलिस अधिकारियों को एक आम आदमी की शिकायतों का शीघ्र निवाररण करना चाहिए। उन्हें प्रगति और खुशहाली के लिए शांतिपूवर्ण वातावरण बनाने और अनुकूल वातावरण की सुरक्षा में अन्य स्टेक होल्डरों को भी साझीदार बनाना चाहिए।
14. लोक अभियोक्ता भी कानून का नियम बनाए रखने में अहम भूमिका निभाते हैं। वे आपराधिक न्याय प्रणाली में शिक्षा देने और लोक आत्मविश्वास को मजबूत करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं। अभियोक्ता यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य है कि पीड़ितों के हितों को ध्यान में रखते हुए आरोपी की निष्पक्ष सुनवाई हो। इसलिए लोक अभियोक्ताओं को साधन और ज्ञान से युक्त करना अनिवार्य है ताकि वे अपराध के विभिन्न रूपों का प्रभावी रूप से जवाब दे सकें। उन्होंने लोक अभियोक्ताओं से अपराध नियंत्रण नीतियां बनाने में अधिक रणनीतिक और अतिसक्रिय भूमिका निभाने की गुहार की। आपके प्रयास देश में एक निष्पक्ष,पारदर्शी और कुशल आपराधिक न्याय प्रणाली की प्रधानता सुनिश्चित करने के लिए निदेर्शित हो।
15. इन्हीं शब्दों के साथ,मैं अपनी बात समाप्त करता हूं। एक बार फिर से मैं अभियोग निदेशालय,केरल को आईपीसी की 155वीं वर्षगांठ के परिश्रम के लिए सराहना करता हूं। मुझे उम्मीद है कि इस प्रकार के आयोजित समारोह आपराधिक कानून सुधार पर गंभीर वाद-विवाद और विचार-विमर्श को प्रेरित करेंगे। मैं आप सभी के उत्तम भविष्य की कामना करता हूं।
धन्यवाद,
जय हिंद!