पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना में खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा के लिए सतत् कृषि पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
लुधियाना, पंजाब : 27.11.2012
श्री शिवराज पाटिल, पंजाब के राज्यपाल
एवं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के कुलाधिपति,
सरदार प्रकाश सिंह बादल, पंजाब के मुख्यमंत्री,
डॉ. बलदेव सिंह ढिल्लों, पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति,
विशिष्ट प्रतिनिधिगण,
देवियो और सज्जनो,
इस प्रख्यात संस्थान की 50वीं वर्षगांठ के मौके पर मुझे पंजाब विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों और विद्यार्थियों को बधाई और शुभकामनाएं देते हुए बहुत खुशी हो रही है।
अपने मौजूदा पद पर यह मेरी पहली पंजाब यात्रा है। वास्तव में, आज यहां उपस्थित प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के बीच आने के लिए मैं बहुत उत्सुक था। यह संस्थान उस हरित क्रांति का पर्याय है जिसने भारतीय कृषि का कायापलट करके देश को अपनी जनता का पेट भरने में आत्मनिर्भर किया। आज हम इतना उत्पादन कर रहे हैं कि हम निर्यात कर सकें और अन्य विकासशील देशों की सहायता कर सकें। पंजाब विश्वविद्यालय ने ही 1960 के दशक में उस समय कृषि अनुसंधान तथा प्रौद्योगिकी के प्रसार का नेतृत्व किया था जिस समय हमें इसकी अत्यंत जरूरत थी। इसके वैज्ञानिकों ने अनुसंधान, नवान्वेषण तथा विदेशी सहयोग के क्षेत्र में अत्यधिक तात्कालिकता के साथ कार्य किया। तब से उन्होंने सैकड़ों नई नस्लों तथा अधिक उपज तथा मजबूत किस्म की फसलों को विकसित किया है तथा पर्यावरण, मौसम तथा मिट्टी के हालातों के प्रबंधन का अध्ययन किया है। मैं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को देश की सेवा में उसके शानदार योगदान के लिए बधाई देता हूं।
देवियो और सज्जनो, भारत में कृषि क्षेत्र, आज भी हमारी जनता की जीवनरेखा तथा हमारी अर्थव्यवस्था की समग्र उत्पादकता में एक प्रमुख कारक बना हुआ है। इसे प्रत्येक बजट और योजना में भारत के विकासात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए, उचित प्राथमिकता प्रदान की गई है। दशकों से, भारत सरकार ने छोटे किसानों से लेकर बड़े निवेशकों तक, पूरे कृषि सेक्टर को सहायता देने के लिए विभिन्न स्कीम और उपाय शुरू किए हैं। कृषि विकास में सहयोग करने, बेहतर मूल्य दिलाने तथा कृषि विपणन सुधार पर केंद्रित संस्थान तथा बैंक स्थापित किए गए हैं। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग तथा भारतीय खाद्य निगम को क्रमश: न्यूनतम समर्थन मूल्यों की सिफारिश करने तथा सरकारी भंडारों के लिए अनाज की खरीद के लिए तथा नाबार्ड तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को आसान तथा समुचित ऋण उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन तथा राष्ट्रीय बागवानी मिशन से सुदूर तथा दूरवर्ती क्षेत्रों तक सरकार सुविधाएं पहुंचा सकी है।
समावेशी विकास को बढ़ावा देना, खाद्य सुरक्षा को बनाए रखना तथा देश में ग्रामीण आय में वृद्धि मूलत: कृषि सेक्टर में विकास से जुड़े हुए हैं। वित्त मंत्री के रूप में मैंने वर्ष 2010-11 के लिए केंद्रीय बजट के हिस्से के तौर पर एक चार-सूत्रीय कार्य योजना की रूपरेखा दी थी। इस कार्य योजना का पहला भाग, देश के पूर्वी क्षेत्रों तक हरित क्रांति का विस्तार करना था, जिसमें बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा शामिल हैं। कार्य योजना के दूसरे भाग में भंडारण में होने वाली भारी बरबादी तथा देश में मौजूदा खाद्य आपूर्ति शृंखलाओं के संचालन के समय होने वाली बरबादी को रोकना था। तीसरे भाग में किसानों को ऋण की उपलब्धता में सुधार लाना था और चौथे भाग में अत्याधुनिक अवसंरचना तथा अच्छे वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करके खाद्य प्रसंस्करण सेक्टर के विकास को प्रोत्साहन प्रदान करना था।
पूर्वी भारत में हरित क्रांति लाने की पहल के परिणामस्वरूप धान के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई और पूर्वी भारत के राज्यों ने खरीफ 2011 की फसल में 7 मिलियन टन के अतिरिक्त धान के उत्पादन की सूचना दी। देश में कुल धान का उत्पादन जो वर्ष 2010-11 में 95.98 मिलियन मीट्रिक टन था, वर्ष 2011-12 में बढ़कर 104.32 मिलियन मीट्रिक टन हो गया। अंतरराष्ट्रीय राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट, मनीला के महानिदेशक श्री रॉबर्ट एस जेगलर ने यह कहते हुए इस उपलब्धि की सराहना की है कि ‘‘भारत द्वारा 100 मिलियन टन धान के उत्पादन की सीमा पार करने के संबंध में सबसे खुशी की बात यह है कि इसमें सबसे ज्यादा योगदान पूर्वी भारत का है।’’ देश में कुल अनाज उत्पादन जो वर्ष 2010-11 में 244.78 मिलियन मीट्रिक टन था, वर्ष 2011-12 तक बढ़कर 257.44 मिलियन मीट्रिक टन हो गया। भंडारण के दौरान बरबादी रोकने के लिए सरकार ने देश में अतिरिक्त अनाज भंडारण क्षमता सृजित करने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। आधुनिक सिलोस बनाकर दो मिलियन टन की भंडारण क्षमता सृजित करने का अनुमोदन पहले ही दिया जा चुका है। इसके अलावा 15 मिलियन टन की भंडारण क्षमता निजी उद्यमियों और भंडारण निगमों के द्वारा सृजित की जा रही है। किसानों को सुलभ कृषि ऋण समय पर मिले इसके लिए समय-समय पर केंद्रीय बजट में कृषि ऋण की मात्रा में वृद्धि की जाती रही है। जहां वर्ष 2010-11 में यह 375000 करोड़ रुपए थी वहीं 2012-13 में यह 575000 करोड़ रही है। ग्यारहवीं योजना में शुरू की गई मेगा फूड पार्क स्कीम में खेती के अनुकूल अत्याधुनिक अवसंरचना खड़ा करने और उसे मांग-प्रचालित आधार पर अग्र और पश्च संयोजन प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया है। इस वित्तीय वर्ष में, 30 मेगा फूड पार्कों के सृजन की योजना बनाई जा रही है।
मौजूदा दौर में हम काफी आगे बढ़ चुके हैं। वर्ष 2011-12 में कृषि एवं संबद्ध क्रियाकलापों में वृद्धि दर सकल घरेलू उत्पाद की 2.8 प्रतिशत थी जो वर्ष 2010-11 के 7 प्रतिशत के मुकाबले कम है परंतु वर्ष 2008-09 में 0.4 प्रतिशत और 2009-10 में 1.7 प्रतिशत के मुकाबले अच्छी है।
परंतु यह एक सच्चाई है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता—और मैं आज इस अवसर पर आप सबसे इस पर चिंतन करने का आग्रह करूंगा—कि इन सभी सफलताओं और प्रयासों तथा उपायों के बावजूद और भारत की समग्र बेहतर आर्थिक प्रगति के बावजूद, इस सेक्टर की आर्थिक व्यवहार्यता अभी भी एक चुनौती क्यों बनी हुई है। आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां सीमांत तथा छोटे किसान अभी भी असफलता, जोखिम और निराशा के शिकार हैं। वैज्ञानिक और कारपोरेट समुदाय के सहयोग के साथ, सरकार के इतने कार्यक्रमों और स्कीमों के बावजूद ऐसा क्यों है कि समृद्धि इस सेक्टर के इतने बड़े हिस्से से दूर रही है। यह एक विडंबना है कि यद्यपि भारत दुनिया में फलों और सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादनकर्ता है, इस उत्पाद का मूल्य संवर्धन केवल 7 प्रतिशत है और प्रसंस्करण लगभग 3 प्रतिशत है। खेती के स्तर पर मुश्किल से ही किसी प्रकार का मूल्य संवर्धन हो पा रहा है और 98 प्रतिशत कृषि उत्पाद को वैसा ही बेच दिया जाता है जैसा वह खेत से निकलता है। हमारे उष्णकटिबंधीय/उप-उष्णकटिबंधीय हालातों के कारण 25 प्रतिशत से अधिक उत्पाद फसल निकालने और उसको संभालने के समय ही बरबाद हो जाता है। हम ऐसी उन दालों का भारी मात्रा में आयात करते हैं जिनका हम उपभोग करते हैं। कृषि की दृष्टि से उन्नत क्षेत्रों में, जमीनी पानी के संसाधनों का अधिक उपयोग तथा कीटों और बीमारियों से खतरे की समस्याएं हैं; जमीन से पौष्टिक तत्त्वों के अधिक दोहन से बहु-पोषक तत्त्वों की कमी हो गई है। उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से मिट्टी की उत्पादकता की कमी आई है।
मुझे महात्मा गांधी जी की एक टिप्पणी याद आ रही है, जिसका मेरे मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था : उन्होंने कहा था, ‘‘कोई भी किसान अपने मस्तिष्क का उपयोग किए बिना कार्य नहीं कर सकता। उसे इस बात के लिए सक्षम होना चाहिए कि वह अपनी मिट्टी का परीक्षण कर सके, मौसम के बदलावों पर नजर रख सके, उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि अपने हल को कुशलता से कैसे चलाए, और उसे आम तौर पर ग्रहों, सूर्य और चंद्रमा की गति का ज्ञान होना चाहिए...’’
यही कारण है कि हम उत्पादकता में जितनी वृद्धि चाहते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए सतत् पद्धति के लिए भारतीय किसान को अत्यावश्यक वित्तीय, प्रौद्योगिकीय, ढांचागत, परिवहन और अन्य जरूरतों को उपलब्ध करवाना बेहद जरूरी है।
इस संदर्भ में, मैं उन चुनौतियों के बारे में कुछ विचार प्रकट करना चाहूंगा जिन पर हमें ध्यान देना होगा। हमें भारत में कृषि पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। यदि हमें भारत में खाद्य सुरक्षा हासिल करनी है तो हमें तुरंत ऐसा करना होगा। हमें एक ऐसी सुसंगत और व्यापक नीति अपनानी होगी जिसमें इसके विभिन्न उपादानों के बीच तालमेल हो। उनके कार्यान्वयन की कुशल प्रणाली के बिना सभी सरकारी प्रयास बेकार हो जाते हैं। इसी प्रकार, इन योजनाओं की निगरानी और आकलन पर राज्य और केंद्र सरकार के बीच सहयोग भी उतना ही जरूरी है। सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए जमीनी स्तर पर एक समन्वित और समेकित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
बहुत-सी नीतियां, उनपर प्रतिक्रिया संबंधी गलत जानकारी के कारण विफल हो सकती हैं। सूचना का समेकन और नीति-एकीकरण अनिवार्य है। आज जब मैं विद्वानों और विशेषज्ञों के बीच में हूं, मैं यह सुझाव देना चाहूंगा कि हम प्राथमिकताओं की पहचान करें और तेजी से कार्य करें। मैं तत्काल ध्यान दिए जाने वाली अपनी सूची में प्रशिक्षण और उद्यमिता विकास को ऊँची प्राथमिकता देना चाहूंगा। इसके साथ ही, मैं इस सूची में किसानों के लिए समुचित प्रौद्योगिकी का विकास तथा उन तक उसे पहुंचाना, कृषि विपणन सुधार, वर्तमान उपज अन्तर और बंजर भूमि खेती के तरीकों का अध्ययन करने, प्रयोग के दौरान और अधिक उपयोग से उर्वरकों की बरबादी का पता लगाने तथा उपयोगी और प्रयोक्ता अनुकूल तथा मौसम पूर्वानुमान के संबंध में प्रासंगिक एवं समय पर सूचना मुहैया करवाने संबंधी सरल सूचना प्रौद्योगिकी यंत्रों के विकास के कार्य को भी जोड़ना चाहूंगा। उत्पादकता बढ़ने से प्रति यूनिट लागत में कमी आएगी और हमारे उत्पादों की वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता में बढ़ोतरी होगी।
कृषि के यंत्रीकरण, खेतों को मंडियों से जोड़ने और प्रत्येक स्तर पर मूल्य संवर्धन करने से रोजगार में वृद्धि, उद्यमिता विकास, किसानों को अधिक फायदा तथा उपभोक्ताओं को सुरक्षित और स्वस्थ भोजन मिलने में मदद मिलेगी। खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में निवेश ने सभी के लाभ को कई गुना कर दिया है इसलिए प्रसंस्करण सेक्टर को बड़ा प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है। वित्तीय प्रोत्साहन तथा राज्य सरकारों की भूमि पट्टे की नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि कृषि-प्रसंस्करण का कार्य विशेषकर ग्रामीण इलाकों में, कृषकों और निजी क्षेत्र दोनों के लिए एक लाभकारी विकल्प बन जाए।
पुन: आकलन का एक उपयोगी हिस्सा बाजार मांग के पूर्वानुमान के लिए फसलों और मवेशियों का आकलन और सूचीकरण, संसाधन आबंटन का नियोजन और अधिकतम उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए इनके इष्टतम प्रयोग को सुनिश्चित करना, रहेगा। इससे विश्व बाजार में बढ़त हासिल होगी। इसी प्रकार कृषि उद्योग, शोध संस्थानों की साझीदारी से, प्रासंगिक और मानकीकृत फसल उत्पादन तथा दक्षतापूर्ण कृषि आपूर्ति शृंखलाओं की समेकित योजना बनाई जा सकती है जो कि ऊपर से नीचे तक सुसंबद्ध हो। कृषि विश्वविद्यालयों और किसानों के बीच संयोजकता दोनों के लिए बहुत लाभदायक हो सकती है।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नई किस्मों, उपज के बाद की प्रक्रियाओं संबंधी प्रौद्योगिकियों और पद्धतियों के नवान्वेषण को ऊंची प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए। कृषि एवं संबंधित गतिविधियों से अनुसंधान एवं विकास पर खर्च किए जाने वाले सकल घरेलू उत्पाद की प्रतिशतता को मौजूदा 0.6 प्रतिशत के स्तर से बढ़ाकर बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 1.0 प्रतिशत किया जाना चाहिए।
मेरा मानना है कि कृषि सतत्ता तथा खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रौद्योगिकी विकास, नई विपणन पद्धतियों, कृषि कार्यों में परिशुद्धता तथा नवान्वेषी नीतियों सहित एक बहुसूत्रीय कार्यनीति की जरूरत है तथा मैं खाद्य भंडारण और इसके वितरण के आधुनिकीकरण की ओर उचित ध्यान देने पर भी बल देना चाहूंगा।
अत: खाद्य और आजीविका सुरक्षा के लिए सतत् कृषि पर यह सम्मेलन भागीदारों के लिए, वर्तमान समग्र दृष्टिकोण की समीक्षा करने के, भारत में कृषि विकास में तेजी लाने और भारत में राष्ट्रीय खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा को और मजबूत करने के लिए एक अद्यतन विस्तृत कार्ययोजना को विकसित करने का महत्त्वपूर्ण अवसर है।
इन्हीं शब्दों के साथ, मुझे सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रसन्नता हो रही है।
मैं इस अवसर पर, विद्यार्थियों और संकाय सदस्यों को उनके भावी प्रयासों के सफल होने की कामना करता हूं।
जय हिंद!
एवं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के कुलाधिपति,
सरदार प्रकाश सिंह बादल, पंजाब के मुख्यमंत्री,
डॉ. बलदेव सिंह ढिल्लों, पंजाब विश्वविद्यालय के कुलपति,
विशिष्ट प्रतिनिधिगण,
देवियो और सज्जनो,
इस प्रख्यात संस्थान की 50वीं वर्षगांठ के मौके पर मुझे पंजाब विश्वविद्यालय के संकाय सदस्यों और विद्यार्थियों को बधाई और शुभकामनाएं देते हुए बहुत खुशी हो रही है।
अपने मौजूदा पद पर यह मेरी पहली पंजाब यात्रा है। वास्तव में, आज यहां उपस्थित प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के बीच आने के लिए मैं बहुत उत्सुक था। यह संस्थान उस हरित क्रांति का पर्याय है जिसने भारतीय कृषि का कायापलट करके देश को अपनी जनता का पेट भरने में आत्मनिर्भर किया। आज हम इतना उत्पादन कर रहे हैं कि हम निर्यात कर सकें और अन्य विकासशील देशों की सहायता कर सकें। पंजाब विश्वविद्यालय ने ही 1960 के दशक में उस समय कृषि अनुसंधान तथा प्रौद्योगिकी के प्रसार का नेतृत्व किया था जिस समय हमें इसकी अत्यंत जरूरत थी। इसके वैज्ञानिकों ने अनुसंधान, नवान्वेषण तथा विदेशी सहयोग के क्षेत्र में अत्यधिक तात्कालिकता के साथ कार्य किया। तब से उन्होंने सैकड़ों नई नस्लों तथा अधिक उपज तथा मजबूत किस्म की फसलों को विकसित किया है तथा पर्यावरण, मौसम तथा मिट्टी के हालातों के प्रबंधन का अध्ययन किया है। मैं पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को देश की सेवा में उसके शानदार योगदान के लिए बधाई देता हूं।
देवियो और सज्जनो, भारत में कृषि क्षेत्र, आज भी हमारी जनता की जीवनरेखा तथा हमारी अर्थव्यवस्था की समग्र उत्पादकता में एक प्रमुख कारक बना हुआ है। इसे प्रत्येक बजट और योजना में भारत के विकासात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए, उचित प्राथमिकता प्रदान की गई है। दशकों से, भारत सरकार ने छोटे किसानों से लेकर बड़े निवेशकों तक, पूरे कृषि सेक्टर को सहायता देने के लिए विभिन्न स्कीम और उपाय शुरू किए हैं। कृषि विकास में सहयोग करने, बेहतर मूल्य दिलाने तथा कृषि विपणन सुधार पर केंद्रित संस्थान तथा बैंक स्थापित किए गए हैं। कृषि लागत एवं मूल्य आयोग तथा भारतीय खाद्य निगम को क्रमश: न्यूनतम समर्थन मूल्यों की सिफारिश करने तथा सरकारी भंडारों के लिए अनाज की खरीद के लिए तथा नाबार्ड तथा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को आसान तथा समुचित ऋण उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए स्थापित किया गया। राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन तथा राष्ट्रीय बागवानी मिशन से सुदूर तथा दूरवर्ती क्षेत्रों तक सरकार सुविधाएं पहुंचा सकी है।
समावेशी विकास को बढ़ावा देना, खाद्य सुरक्षा को बनाए रखना तथा देश में ग्रामीण आय में वृद्धि मूलत: कृषि सेक्टर में विकास से जुड़े हुए हैं। वित्त मंत्री के रूप में मैंने वर्ष 2010-11 के लिए केंद्रीय बजट के हिस्से के तौर पर एक चार-सूत्रीय कार्य योजना की रूपरेखा दी थी। इस कार्य योजना का पहला भाग, देश के पूर्वी क्षेत्रों तक हरित क्रांति का विस्तार करना था, जिसमें बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा शामिल हैं। कार्य योजना के दूसरे भाग में भंडारण में होने वाली भारी बरबादी तथा देश में मौजूदा खाद्य आपूर्ति शृंखलाओं के संचालन के समय होने वाली बरबादी को रोकना था। तीसरे भाग में किसानों को ऋण की उपलब्धता में सुधार लाना था और चौथे भाग में अत्याधुनिक अवसंरचना तथा अच्छे वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करके खाद्य प्रसंस्करण सेक्टर के विकास को प्रोत्साहन प्रदान करना था।
पूर्वी भारत में हरित क्रांति लाने की पहल के परिणामस्वरूप धान के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई और पूर्वी भारत के राज्यों ने खरीफ 2011 की फसल में 7 मिलियन टन के अतिरिक्त धान के उत्पादन की सूचना दी। देश में कुल धान का उत्पादन जो वर्ष 2010-11 में 95.98 मिलियन मीट्रिक टन था, वर्ष 2011-12 में बढ़कर 104.32 मिलियन मीट्रिक टन हो गया। अंतरराष्ट्रीय राइस रिसर्च इंस्टिट्यूट, मनीला के महानिदेशक श्री रॉबर्ट एस जेगलर ने यह कहते हुए इस उपलब्धि की सराहना की है कि ‘‘भारत द्वारा 100 मिलियन टन धान के उत्पादन की सीमा पार करने के संबंध में सबसे खुशी की बात यह है कि इसमें सबसे ज्यादा योगदान पूर्वी भारत का है।’’ देश में कुल अनाज उत्पादन जो वर्ष 2010-11 में 244.78 मिलियन मीट्रिक टन था, वर्ष 2011-12 तक बढ़कर 257.44 मिलियन मीट्रिक टन हो गया। भंडारण के दौरान बरबादी रोकने के लिए सरकार ने देश में अतिरिक्त अनाज भंडारण क्षमता सृजित करने के लिए ठोस कदम उठाए हैं। आधुनिक सिलोस बनाकर दो मिलियन टन की भंडारण क्षमता सृजित करने का अनुमोदन पहले ही दिया जा चुका है। इसके अलावा 15 मिलियन टन की भंडारण क्षमता निजी उद्यमियों और भंडारण निगमों के द्वारा सृजित की जा रही है। किसानों को सुलभ कृषि ऋण समय पर मिले इसके लिए समय-समय पर केंद्रीय बजट में कृषि ऋण की मात्रा में वृद्धि की जाती रही है। जहां वर्ष 2010-11 में यह 375000 करोड़ रुपए थी वहीं 2012-13 में यह 575000 करोड़ रही है। ग्यारहवीं योजना में शुरू की गई मेगा फूड पार्क स्कीम में खेती के अनुकूल अत्याधुनिक अवसंरचना खड़ा करने और उसे मांग-प्रचालित आधार पर अग्र और पश्च संयोजन प्रदान करने का लक्ष्य रखा गया है। इस वित्तीय वर्ष में, 30 मेगा फूड पार्कों के सृजन की योजना बनाई जा रही है।
मौजूदा दौर में हम काफी आगे बढ़ चुके हैं। वर्ष 2011-12 में कृषि एवं संबद्ध क्रियाकलापों में वृद्धि दर सकल घरेलू उत्पाद की 2.8 प्रतिशत थी जो वर्ष 2010-11 के 7 प्रतिशत के मुकाबले कम है परंतु वर्ष 2008-09 में 0.4 प्रतिशत और 2009-10 में 1.7 प्रतिशत के मुकाबले अच्छी है।
परंतु यह एक सच्चाई है जिसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता—और मैं आज इस अवसर पर आप सबसे इस पर चिंतन करने का आग्रह करूंगा—कि इन सभी सफलताओं और प्रयासों तथा उपायों के बावजूद और भारत की समग्र बेहतर आर्थिक प्रगति के बावजूद, इस सेक्टर की आर्थिक व्यवहार्यता अभी भी एक चुनौती क्यों बनी हुई है। आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां सीमांत तथा छोटे किसान अभी भी असफलता, जोखिम और निराशा के शिकार हैं। वैज्ञानिक और कारपोरेट समुदाय के सहयोग के साथ, सरकार के इतने कार्यक्रमों और स्कीमों के बावजूद ऐसा क्यों है कि समृद्धि इस सेक्टर के इतने बड़े हिस्से से दूर रही है। यह एक विडंबना है कि यद्यपि भारत दुनिया में फलों और सब्जियों का सबसे बड़ा उत्पादनकर्ता है, इस उत्पाद का मूल्य संवर्धन केवल 7 प्रतिशत है और प्रसंस्करण लगभग 3 प्रतिशत है। खेती के स्तर पर मुश्किल से ही किसी प्रकार का मूल्य संवर्धन हो पा रहा है और 98 प्रतिशत कृषि उत्पाद को वैसा ही बेच दिया जाता है जैसा वह खेत से निकलता है। हमारे उष्णकटिबंधीय/उप-उष्णकटिबंधीय हालातों के कारण 25 प्रतिशत से अधिक उत्पाद फसल निकालने और उसको संभालने के समय ही बरबाद हो जाता है। हम ऐसी उन दालों का भारी मात्रा में आयात करते हैं जिनका हम उपभोग करते हैं। कृषि की दृष्टि से उन्नत क्षेत्रों में, जमीनी पानी के संसाधनों का अधिक उपयोग तथा कीटों और बीमारियों से खतरे की समस्याएं हैं; जमीन से पौष्टिक तत्त्वों के अधिक दोहन से बहु-पोषक तत्त्वों की कमी हो गई है। उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से मिट्टी की उत्पादकता की कमी आई है।
मुझे महात्मा गांधी जी की एक टिप्पणी याद आ रही है, जिसका मेरे मस्तिष्क पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा था : उन्होंने कहा था, ‘‘कोई भी किसान अपने मस्तिष्क का उपयोग किए बिना कार्य नहीं कर सकता। उसे इस बात के लिए सक्षम होना चाहिए कि वह अपनी मिट्टी का परीक्षण कर सके, मौसम के बदलावों पर नजर रख सके, उसे इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि अपने हल को कुशलता से कैसे चलाए, और उसे आम तौर पर ग्रहों, सूर्य और चंद्रमा की गति का ज्ञान होना चाहिए...’’
यही कारण है कि हम उत्पादकता में जितनी वृद्धि चाहते हैं, उसे प्राप्त करने के लिए सतत् पद्धति के लिए भारतीय किसान को अत्यावश्यक वित्तीय, प्रौद्योगिकीय, ढांचागत, परिवहन और अन्य जरूरतों को उपलब्ध करवाना बेहद जरूरी है।
इस संदर्भ में, मैं उन चुनौतियों के बारे में कुछ विचार प्रकट करना चाहूंगा जिन पर हमें ध्यान देना होगा। हमें भारत में कृषि पर पुनर्विचार करने की जरूरत है। यदि हमें भारत में खाद्य सुरक्षा हासिल करनी है तो हमें तुरंत ऐसा करना होगा। हमें एक ऐसी सुसंगत और व्यापक नीति अपनानी होगी जिसमें इसके विभिन्न उपादानों के बीच तालमेल हो। उनके कार्यान्वयन की कुशल प्रणाली के बिना सभी सरकारी प्रयास बेकार हो जाते हैं। इसी प्रकार, इन योजनाओं की निगरानी और आकलन पर राज्य और केंद्र सरकार के बीच सहयोग भी उतना ही जरूरी है। सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए जमीनी स्तर पर एक समन्वित और समेकित दृष्टिकोण अपनाया जाना चाहिए।
बहुत-सी नीतियां, उनपर प्रतिक्रिया संबंधी गलत जानकारी के कारण विफल हो सकती हैं। सूचना का समेकन और नीति-एकीकरण अनिवार्य है। आज जब मैं विद्वानों और विशेषज्ञों के बीच में हूं, मैं यह सुझाव देना चाहूंगा कि हम प्राथमिकताओं की पहचान करें और तेजी से कार्य करें। मैं तत्काल ध्यान दिए जाने वाली अपनी सूची में प्रशिक्षण और उद्यमिता विकास को ऊँची प्राथमिकता देना चाहूंगा। इसके साथ ही, मैं इस सूची में किसानों के लिए समुचित प्रौद्योगिकी का विकास तथा उन तक उसे पहुंचाना, कृषि विपणन सुधार, वर्तमान उपज अन्तर और बंजर भूमि खेती के तरीकों का अध्ययन करने, प्रयोग के दौरान और अधिक उपयोग से उर्वरकों की बरबादी का पता लगाने तथा उपयोगी और प्रयोक्ता अनुकूल तथा मौसम पूर्वानुमान के संबंध में प्रासंगिक एवं समय पर सूचना मुहैया करवाने संबंधी सरल सूचना प्रौद्योगिकी यंत्रों के विकास के कार्य को भी जोड़ना चाहूंगा। उत्पादकता बढ़ने से प्रति यूनिट लागत में कमी आएगी और हमारे उत्पादों की वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता में बढ़ोतरी होगी।
कृषि के यंत्रीकरण, खेतों को मंडियों से जोड़ने और प्रत्येक स्तर पर मूल्य संवर्धन करने से रोजगार में वृद्धि, उद्यमिता विकास, किसानों को अधिक फायदा तथा उपभोक्ताओं को सुरक्षित और स्वस्थ भोजन मिलने में मदद मिलेगी। खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र में निवेश ने सभी के लाभ को कई गुना कर दिया है इसलिए प्रसंस्करण सेक्टर को बड़ा प्रोत्साहन दिए जाने की जरूरत है। वित्तीय प्रोत्साहन तथा राज्य सरकारों की भूमि पट्टे की नीतियां ऐसी होनी चाहिए कि कृषि-प्रसंस्करण का कार्य विशेषकर ग्रामीण इलाकों में, कृषकों और निजी क्षेत्र दोनों के लिए एक लाभकारी विकल्प बन जाए।
पुन: आकलन का एक उपयोगी हिस्सा बाजार मांग के पूर्वानुमान के लिए फसलों और मवेशियों का आकलन और सूचीकरण, संसाधन आबंटन का नियोजन और अधिकतम उत्पादन सुनिश्चित करने के लिए इनके इष्टतम प्रयोग को सुनिश्चित करना, रहेगा। इससे विश्व बाजार में बढ़त हासिल होगी। इसी प्रकार कृषि उद्योग, शोध संस्थानों की साझीदारी से, प्रासंगिक और मानकीकृत फसल उत्पादन तथा दक्षतापूर्ण कृषि आपूर्ति शृंखलाओं की समेकित योजना बनाई जा सकती है जो कि ऊपर से नीचे तक सुसंबद्ध हो। कृषि विश्वविद्यालयों और किसानों के बीच संयोजकता दोनों के लिए बहुत लाभदायक हो सकती है।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि नई किस्मों, उपज के बाद की प्रक्रियाओं संबंधी प्रौद्योगिकियों और पद्धतियों के नवान्वेषण को ऊंची प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए। कृषि एवं संबंधित गतिविधियों से अनुसंधान एवं विकास पर खर्च किए जाने वाले सकल घरेलू उत्पाद की प्रतिशतता को मौजूदा 0.6 प्रतिशत के स्तर से बढ़ाकर बारहवीं पंचवर्षीय योजना में 1.0 प्रतिशत किया जाना चाहिए।
मेरा मानना है कि कृषि सतत्ता तथा खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए प्रौद्योगिकी विकास, नई विपणन पद्धतियों, कृषि कार्यों में परिशुद्धता तथा नवान्वेषी नीतियों सहित एक बहुसूत्रीय कार्यनीति की जरूरत है तथा मैं खाद्य भंडारण और इसके वितरण के आधुनिकीकरण की ओर उचित ध्यान देने पर भी बल देना चाहूंगा।
अत: खाद्य और आजीविका सुरक्षा के लिए सतत् कृषि पर यह सम्मेलन भागीदारों के लिए, वर्तमान समग्र दृष्टिकोण की समीक्षा करने के, भारत में कृषि विकास में तेजी लाने और भारत में राष्ट्रीय खाद्य एवं आजीविका सुरक्षा को और मजबूत करने के लिए एक अद्यतन विस्तृत कार्ययोजना को विकसित करने का महत्त्वपूर्ण अवसर है।
इन्हीं शब्दों के साथ, मुझे सम्मेलन का उद्घाटन करते हुए प्रसन्नता हो रही है।
मैं इस अवसर पर, विद्यार्थियों और संकाय सदस्यों को उनके भावी प्रयासों के सफल होने की कामना करता हूं।
जय हिंद!