चौथे विश्व तेलुगु सम्मेलन के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
तिरुपति, आंध्रप्रदेश : 27.12.2012
मुझे चौथे विश्व तेलुगु सम्मेलन में आकर और तेलुगु भाषा और साहित्य के लब्ध-प्रतिष्ठ विद्वानों को संबोधित करते हुए बहुत खुशी हो रहा है।
मुझे यह देखकर खुशी हो रही है कि आंध्र प्रदेश सरकार इस सम्मेलन के माध्यम से तेलुगु भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने का व्यापक प्रयास कर रही है। मैं समझता हूं कि इस सम्मेलन में पुस्तक-प्रदर्शनी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन, संगोष्ठियों का आयोजन तथा विशेष पत्रिकाओं का प्रकाशन जैसी गतिविधियां आयोजित की जा रही हैं।
तेलुगु भारत की एक प्राचीनतम् भाषा है। ‘तेलुगु’ शब्द संभवत: त्रिलिंग अथवा त्रिलिंग देश अर्थात ‘तीन लिंगों का देश’ से निकला है। ऐसी किंवदती है कि भगवान शिव तेलुगु क्षेत्र में फैली हुई कालेश्वर, श्री शैल और भीमेश्वर नामक तीन पहाड़ियों पर लिंग के रूप में अवतरित हुए थे। भाषा विज्ञान के विशेषज्ञ यह मानते हैं कि तेलुगु 1500 से 100 ईसा पूर्व में प्रोटो-द्रविडियन भाषाओं से पृथक हुई थी। आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में 400 ईसा पूर्व के समय के ऐसे शिलालेख पाए गए हैं जिनमें तेलुगु शब्दों का प्रयोग है। इतना समय बीतने के बावजूद, यह भाषा अपना मूल स्वरूप बनाए रखने में सफल रही है तथा इसी के साथ इसने एक आधुनिक भाषा के रूप में विकास किया है।
तेलुगु साहित्य की प्राचीनत् रचनाएं धार्मिक विषयों के निरूपण के कारण जानी जाती हैं। मौजूदा समय की ग्यारहवीं और चौदहवीं सदी के बीच तेलुगु साहित्य के त्रिदेव माने जाने वाले कवियों नन्नाया, टिक्काना तथा इर्राना ने आंध्र महाभारतम् की रचना की। संभवत: तेलुगु में इस महान महाकाव्य की रचना के साथ ही तेलुगु साहित्य आकार लेने लगा था। तेरहवीं सदी में गोनाबुडडा रेड्डी द्वारा रचित रंगनाथ रामायण, रामायण की विषय वस्तु पर तेलुगु में एक विशिष्ट रचना थी। यह महान साहित्यिक रचना अब तेलुगु संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुकी है।
तेलुगु की समृद्ध साहित्यिक और व्याकरणिक परंपराएं है। तेलुगु भाषा में प्रबंधम् जैसे बहुत से साहित्यिक रूप बहुतायत में पाए जाते हैं जो कि काव्यात्मक रूप में लिखी गई कहानियां है। तेलुगु साहित्य में एक विशिष्ट शैली भी प्रयोग होती है जिसे चंपू कहते है जो कि गद्य और पद्य का सुदंर मिश्रण है। जनसामान्य को तेलुगु साहित्य अधिक आसानी से समझें आए तथा इस भाषा में अधिक प्रशंसकों को आकर्षित करने के जिए द्विपद अथवा दोहे, शतक अथवा सौ पद लिखे गए। इनमें दसरथी शतक और वेमना शतक शामिल हैं। प्रवस्तु चिन्नय सूरी की तेलुगु व्याकरण को बहुत देन है जिन्होंने इस भाषा के व्याकरण पर बहुत अनुसंधान किए और 19वीं सदी में बाला व्याकरणमु लिखी।
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी को तेलुगु साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। तेलुगु साहित्य में प्रथम मौलिक काव्यात्मक उपन्यास कला पूर्णोदयम की रचना पिंगालियु सूरणा ने की थी जो कि तेलुगु प्राचीन काव्य के प्रवर्तक थे। कृष्ण देव राय की अमुक्त माल्यध को, जिसमें शानदार काव्यगत शैली में इहलौकिक और परलौकिक आख्यान का प्रयोग एक रोचक कहानी सुनाने के लिए किया गया था, पेढ़न्ना के मनु चरित्र के साथ ही एक महाकाव्य माना जाता है।
तेलुगु साहित्य में आधुनिकता की प्रवृत्ति नौवीं सदी में शुरू हुई जिसमें सात प्रभावशाली लेखक हुए। गुरजाड़ा वैंकट अप्पा राव, जिन्हें आधुनिक तेलुगु साहित्य का जनक माना जाता है, ने एक ऐसी काव्य शैली का अनुकरण किया जो शुद्ध, प्रांजल, जीवंत तथा स्पष्ट थी। उन्होंने कन्या सुलकम की रचना की जो कि सामाजिक सुधार के अपने स्पष्ट संदेश के लिए ऐतिहासिक नाटक माना जाता है। सामाजिक उद्धार के लिए समर्पित दूसरा तेलुगु उपन्यास है उन्नव लक्ष्मी नारायण का माला पल्ली, जो कि एक स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्होंने अस्पृयता के विरुद्ध लड़ाई भी लड़ी।
तेलुगु में साहित्यिक आंदोलन आज़ादी के बाद भी उसी सशक्तता के साथ जारी रहा है। बहुत से प्रख्यात लेखकों ने इस भाषा के विकास और समृद्धि में योगदान दिया है। विश्वनाथ सत्यनारायण को, जिन्होंने 100 से अधिक रचनाओं का सृजन किया, 1970 में उनकी लोकप्रिय पुस्तक रामायण कल्पवृक्षम के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। डॉ सी नारायण रेड्डी को 1988 में विश्वंबरा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था।
देवियो और सज्जनो,
भारत में चार भारतीय भाषाओं, तमिल, संस्कृत, तेलुगु एवं कन्नड़ को प्राचीन भाषाओं का दर्जा दिया गया है। भारत सरकार ने कड़े मानदंडों के साथ वर्ष 2004 में प्राचीन भाषाओं की श्रेणी बनाई थी जो भाषाएं कुछ सुनिश्चित मानदंड पूरे करती हैं जैसे कि इसके शुरुआती साहित्य की 1500 से 2000 वर्षों की प्राचीनता अथवा लिखित इतिहास, प्राचीन साहित्य का कोष अथवा वक्ताओं की बहुत सी पीढ़ियों द्वारा बहुमूल्य विरासत माना जाना, और मौलिक साहित्यिक परंपरा जो कि किसी दूसरी भाषा से न ली गई हो, प्राचीन भाषा की योग्यता का दर्जा देने के लिए पात्र मानी गई हैं। तेलुगु भाषा, जिसे बहुत प्राचीन जीवंत समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का गौरव प्राप्त है, को 2008 में भारत की प्राचीन भाषा घोषित किया गया था।
तेलुगु, आंध्रप्रदेश के अलावा आज देश के बहुत से हिस्सों जैसे कि पांडिचेरी, तमिलनाडु, कर्नाटक में बोली जाती है। यह देश के तटों से दूर तक भी पहुंच चुकी है। तेलुगु बोलने वाले भारतवंशी अमरीका, यू.के, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, मलेशिया, सिंगापुर, मारीशस तथा दक्षिण अफ्रीका में काफी संख्या में मौजूद हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि तेलुगु भाषा और सभ्यता की प्राचीनता का और आगे अन्वेषण किया जाए। तेलुगु को प्राचीन भाषा घोषित करने के बाद अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि इसके स्वस्थ संवर्धन तथा विकास के लिए हर संभव प्रयास किए जाएं ताकि आने वाली पीढ़ी को उस वृहत ज्ञान और विचारों का लाभ मिल सके जो कि इस भाषा में निहित हैं।
आज के युवाओं के बीच तेलुगु भाषा और साहित्य के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए ठोस योजनाएं बनाए जाने की जरूरत है। अब तक तेलुगु के इतिहास पर जो भी अनुसंधान कार्य हुए हैं उन्हें समेकित करने तथा नई अनुसंधान परियोजनाओं का पता लगाने और उन्हें प्रोत्साहित करने के प्रयास किए जाने चाहिए। लोक प्रशासन तथा शिक्षा में भी तेलुगु के प्रयोग को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए।
भाषाएं केवल संप्रेषण का साधन नहीं होती। हमारी भाषाएं और साहित्य हमारी विरासत हैं। वे हमारे समाज की जड़ों का निर्धारण करती हैं तथा उनका प्रतिबिंबन होती हैं। साहित्य को केवल सरकार के सहयोग से ही बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। मैं सभी भागीदारों का आह्वान करता हूं कि वे भारतीय भाषाओं और साहित्य को प्रोत्साहन तथा बढ़ावा देने के लिए सार्थक योगदान दें।
भारतीय भाषाओं में सर्जनात्मकता तथा प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। जहां अंग्रेजी में भारतीय कवियों की रचनाओं ने दुनिया भर को अचंभित किया है वहीं हमें भारतीय भाषाओं को अधिक प्रचारित करने के अवसर प्रदान करने चाहिए ताकि भारतीय साहित्य में निहित सर्जनात्मकता का दुनिया भर में प्रचार हो सके।
चौथा विश्व सम्मेलन यहां उपस्थित प्रख्यात व्यक्तियों, कवियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों तथा कलाकारों के लिए तेलुगु भाषा को एक नई दिशा और परिकल्पना प्रदान करने का अवसर है। मुझे बताया गया है कि यह सम्मेलन 37 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद आंध्रप्रदेश में हो रहा है। इस तरह के सम्मेलन और जल्दी-जल्दी आयोजित करना उपयोगी रहेगा। मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन से जो विचार और कार्यबिंदु निकल कर आएंगे उनको राज्य सरकार द्वारा परीक्षण करके उन्हें वास्तविकता में बदलने के लिए उपाय किए जाएंगे। मैं इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए यहां बड़ी संख्या में उपस्थित तेलुगु भाषी लोगों को शुभकामनाएं देता हूं।
मैं इस सम्मेलन की शानदार सफलता की कामना करता हूं।
धन्यवाद,
जय हिंद!
मुझे यह देखकर खुशी हो रही है कि आंध्र प्रदेश सरकार इस सम्मेलन के माध्यम से तेलुगु भाषा और साहित्य को बढ़ावा देने का व्यापक प्रयास कर रही है। मैं समझता हूं कि इस सम्मेलन में पुस्तक-प्रदर्शनी, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन, संगोष्ठियों का आयोजन तथा विशेष पत्रिकाओं का प्रकाशन जैसी गतिविधियां आयोजित की जा रही हैं।
तेलुगु भारत की एक प्राचीनतम् भाषा है। ‘तेलुगु’ शब्द संभवत: त्रिलिंग अथवा त्रिलिंग देश अर्थात ‘तीन लिंगों का देश’ से निकला है। ऐसी किंवदती है कि भगवान शिव तेलुगु क्षेत्र में फैली हुई कालेश्वर, श्री शैल और भीमेश्वर नामक तीन पहाड़ियों पर लिंग के रूप में अवतरित हुए थे। भाषा विज्ञान के विशेषज्ञ यह मानते हैं कि तेलुगु 1500 से 100 ईसा पूर्व में प्रोटो-द्रविडियन भाषाओं से पृथक हुई थी। आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में 400 ईसा पूर्व के समय के ऐसे शिलालेख पाए गए हैं जिनमें तेलुगु शब्दों का प्रयोग है। इतना समय बीतने के बावजूद, यह भाषा अपना मूल स्वरूप बनाए रखने में सफल रही है तथा इसी के साथ इसने एक आधुनिक भाषा के रूप में विकास किया है।
तेलुगु साहित्य की प्राचीनत् रचनाएं धार्मिक विषयों के निरूपण के कारण जानी जाती हैं। मौजूदा समय की ग्यारहवीं और चौदहवीं सदी के बीच तेलुगु साहित्य के त्रिदेव माने जाने वाले कवियों नन्नाया, टिक्काना तथा इर्राना ने आंध्र महाभारतम् की रचना की। संभवत: तेलुगु में इस महान महाकाव्य की रचना के साथ ही तेलुगु साहित्य आकार लेने लगा था। तेरहवीं सदी में गोनाबुडडा रेड्डी द्वारा रचित रंगनाथ रामायण, रामायण की विषय वस्तु पर तेलुगु में एक विशिष्ट रचना थी। यह महान साहित्यिक रचना अब तेलुगु संस्कृति का एक अभिन्न अंग बन चुकी है।
तेलुगु की समृद्ध साहित्यिक और व्याकरणिक परंपराएं है। तेलुगु भाषा में प्रबंधम् जैसे बहुत से साहित्यिक रूप बहुतायत में पाए जाते हैं जो कि काव्यात्मक रूप में लिखी गई कहानियां है। तेलुगु साहित्य में एक विशिष्ट शैली भी प्रयोग होती है जिसे चंपू कहते है जो कि गद्य और पद्य का सुदंर मिश्रण है। जनसामान्य को तेलुगु साहित्य अधिक आसानी से समझें आए तथा इस भाषा में अधिक प्रशंसकों को आकर्षित करने के जिए द्विपद अथवा दोहे, शतक अथवा सौ पद लिखे गए। इनमें दसरथी शतक और वेमना शतक शामिल हैं। प्रवस्तु चिन्नय सूरी की तेलुगु व्याकरण को बहुत देन है जिन्होंने इस भाषा के व्याकरण पर बहुत अनुसंधान किए और 19वीं सदी में बाला व्याकरणमु लिखी।
सोलहवीं और सत्रहवीं सदी को तेलुगु साहित्य का स्वर्ण युग माना जाता है। तेलुगु साहित्य में प्रथम मौलिक काव्यात्मक उपन्यास कला पूर्णोदयम की रचना पिंगालियु सूरणा ने की थी जो कि तेलुगु प्राचीन काव्य के प्रवर्तक थे। कृष्ण देव राय की अमुक्त माल्यध को, जिसमें शानदार काव्यगत शैली में इहलौकिक और परलौकिक आख्यान का प्रयोग एक रोचक कहानी सुनाने के लिए किया गया था, पेढ़न्ना के मनु चरित्र के साथ ही एक महाकाव्य माना जाता है।
तेलुगु साहित्य में आधुनिकता की प्रवृत्ति नौवीं सदी में शुरू हुई जिसमें सात प्रभावशाली लेखक हुए। गुरजाड़ा वैंकट अप्पा राव, जिन्हें आधुनिक तेलुगु साहित्य का जनक माना जाता है, ने एक ऐसी काव्य शैली का अनुकरण किया जो शुद्ध, प्रांजल, जीवंत तथा स्पष्ट थी। उन्होंने कन्या सुलकम की रचना की जो कि सामाजिक सुधार के अपने स्पष्ट संदेश के लिए ऐतिहासिक नाटक माना जाता है। सामाजिक उद्धार के लिए समर्पित दूसरा तेलुगु उपन्यास है उन्नव लक्ष्मी नारायण का माला पल्ली, जो कि एक स्वतंत्रता सेनानी थे और उन्होंने अस्पृयता के विरुद्ध लड़ाई भी लड़ी।
तेलुगु में साहित्यिक आंदोलन आज़ादी के बाद भी उसी सशक्तता के साथ जारी रहा है। बहुत से प्रख्यात लेखकों ने इस भाषा के विकास और समृद्धि में योगदान दिया है। विश्वनाथ सत्यनारायण को, जिन्होंने 100 से अधिक रचनाओं का सृजन किया, 1970 में उनकी लोकप्रिय पुस्तक रामायण कल्पवृक्षम के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था। डॉ सी नारायण रेड्डी को 1988 में विश्वंबरा के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया था।
देवियो और सज्जनो,
भारत में चार भारतीय भाषाओं, तमिल, संस्कृत, तेलुगु एवं कन्नड़ को प्राचीन भाषाओं का दर्जा दिया गया है। भारत सरकार ने कड़े मानदंडों के साथ वर्ष 2004 में प्राचीन भाषाओं की श्रेणी बनाई थी जो भाषाएं कुछ सुनिश्चित मानदंड पूरे करती हैं जैसे कि इसके शुरुआती साहित्य की 1500 से 2000 वर्षों की प्राचीनता अथवा लिखित इतिहास, प्राचीन साहित्य का कोष अथवा वक्ताओं की बहुत सी पीढ़ियों द्वारा बहुमूल्य विरासत माना जाना, और मौलिक साहित्यिक परंपरा जो कि किसी दूसरी भाषा से न ली गई हो, प्राचीन भाषा की योग्यता का दर्जा देने के लिए पात्र मानी गई हैं। तेलुगु भाषा, जिसे बहुत प्राचीन जीवंत समृद्ध सांस्कृतिक विरासत का गौरव प्राप्त है, को 2008 में भारत की प्राचीन भाषा घोषित किया गया था।
तेलुगु, आंध्रप्रदेश के अलावा आज देश के बहुत से हिस्सों जैसे कि पांडिचेरी, तमिलनाडु, कर्नाटक में बोली जाती है। यह देश के तटों से दूर तक भी पहुंच चुकी है। तेलुगु बोलने वाले भारतवंशी अमरीका, यू.के, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, मलेशिया, सिंगापुर, मारीशस तथा दक्षिण अफ्रीका में काफी संख्या में मौजूद हैं।
यह महत्वपूर्ण है कि तेलुगु भाषा और सभ्यता की प्राचीनता का और आगे अन्वेषण किया जाए। तेलुगु को प्राचीन भाषा घोषित करने के बाद अब यह हमारी जिम्मेदारी है कि इसके स्वस्थ संवर्धन तथा विकास के लिए हर संभव प्रयास किए जाएं ताकि आने वाली पीढ़ी को उस वृहत ज्ञान और विचारों का लाभ मिल सके जो कि इस भाषा में निहित हैं।
आज के युवाओं के बीच तेलुगु भाषा और साहित्य के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए ठोस योजनाएं बनाए जाने की जरूरत है। अब तक तेलुगु के इतिहास पर जो भी अनुसंधान कार्य हुए हैं उन्हें समेकित करने तथा नई अनुसंधान परियोजनाओं का पता लगाने और उन्हें प्रोत्साहित करने के प्रयास किए जाने चाहिए। लोक प्रशासन तथा शिक्षा में भी तेलुगु के प्रयोग को लोकप्रिय बनाया जाना चाहिए।
भाषाएं केवल संप्रेषण का साधन नहीं होती। हमारी भाषाएं और साहित्य हमारी विरासत हैं। वे हमारे समाज की जड़ों का निर्धारण करती हैं तथा उनका प्रतिबिंबन होती हैं। साहित्य को केवल सरकार के सहयोग से ही बढ़ावा नहीं दिया जा सकता। मैं सभी भागीदारों का आह्वान करता हूं कि वे भारतीय भाषाओं और साहित्य को प्रोत्साहन तथा बढ़ावा देने के लिए सार्थक योगदान दें।
भारतीय भाषाओं में सर्जनात्मकता तथा प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। जहां अंग्रेजी में भारतीय कवियों की रचनाओं ने दुनिया भर को अचंभित किया है वहीं हमें भारतीय भाषाओं को अधिक प्रचारित करने के अवसर प्रदान करने चाहिए ताकि भारतीय साहित्य में निहित सर्जनात्मकता का दुनिया भर में प्रचार हो सके।
चौथा विश्व सम्मेलन यहां उपस्थित प्रख्यात व्यक्तियों, कवियों, लेखकों, बुद्धिजीवियों तथा कलाकारों के लिए तेलुगु भाषा को एक नई दिशा और परिकल्पना प्रदान करने का अवसर है। मुझे बताया गया है कि यह सम्मेलन 37 वर्षों के लम्बे अंतराल के बाद आंध्रप्रदेश में हो रहा है। इस तरह के सम्मेलन और जल्दी-जल्दी आयोजित करना उपयोगी रहेगा। मुझे विश्वास है कि इस सम्मेलन से जो विचार और कार्यबिंदु निकल कर आएंगे उनको राज्य सरकार द्वारा परीक्षण करके उन्हें वास्तविकता में बदलने के लिए उपाय किए जाएंगे। मैं इस महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए यहां बड़ी संख्या में उपस्थित तेलुगु भाषी लोगों को शुभकामनाएं देता हूं।
मैं इस सम्मेलन की शानदार सफलता की कामना करता हूं।
धन्यवाद,
जय हिंद!