कार्टूनिस्ट स्व. श्री पी.के.एस. कुट्टी के श्रद्धांजलि समारोह में भारत के राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण
राष्ट्रपति भवन सभागार, नई दिल्ली : 29.10.2012
कार्टूनिस्ट स्व. श्री पी.के.एस. कुट्टी को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए आयोजित इस विशेष बैठक में भाग लेकर मुझे प्रसन्नता हो रही है।
श्री कुट्टी मुख्यत: शंकर से प्रशिक्षण लेने के लिए 1941 में दिल्ली आए थे। लगभग 57 वर्ष तक उन्होंने प्रतिदिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर टिप्पणियां कीं और भारत के आधुनिक इतिहास की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों को लेखबद्ध किया। कुट्टी ने अपने कामकाजी जीवन का अधिकतर हिस्सा दिल्ली में बिताया। एक अनुभवी कार्टूनिस्ट के रूप में,केन्द्रीय कक्ष का प्रवेश पत्र मिलने के कारण संसद में उनकी नियमित उपस्थिति रहती थी।
मुझे बताया गया है कि 1960 के दशक में स्वर्गीय कामराज जी ने मजाक में कुट्टी से पूछा कि प्रधानमंत्री के रूप में उनकी पसंद कौन हैं। कुट्टी ने उत्तर दिया, ‘‘मैं ऐसा प्रधानमंत्री चाहता हूं जिसका चित्र बनाना आसान हो।’’ और कुट्टी ने पंडित जी से लेकर मनमोहन सिंह जी तक प्रत्येक प्रधानमंत्री का सहजता से चित्र उकेरा।
मैं, अपने लम्बे सार्वजनिक जीवन में, कुट्टी के कार्टूनों का लगातार निशाना बनता रहा हूं, विशेषकर इसलिए क्योंकि वह आनंद बाजार पत्रिका और आजकल जैसे बंगाली अखबारों के लिए कार्टून बनाया करते थे। एक कार्टूनिस्ट का कार्य हास्य के माध्यम से महत्त्वपूर्ण सामाजिक संदेश देना होता है। हँसी लोगों के साथ-साथ राजनीतिज्ञों के लिए भी तनाव-मुक्ति का साधन है। कार्टून लोगों को यह याद दिलाता है कि शासक भी उन्हीं की तरह गलती करने वाला इन्सान है।
कार्टून हमें अंग्रेजों से विरासत के तौर पर मिले हैं। परंतु भारतीयों ने इन्हें बहुत पसंद किया। लंदन पंच पर की तर्ज पर हास्य पत्रिकाएं देश के अनेक हिस्सों में फली-फूलीं। यह अनुमान लगाया जाता है कि 19वीं शताब्दी के अंत तक कम से कम एक दर्जन भारतीय शहरों में 70 से अधिक पंच जैसी पत्रिकाएं और अखबार प्रकाशित होते थे। हमारे यहां उर्दू पंच, अवध पंच और फारसी पंच थी। मुझे विश्वास है कि यहां उपस्थित लोगों के लिए यह दिलचस्पी की बात होगी कि हमें अपने राष्ट्रपति भवन के पुस्तकालय में 1843 से 1927 तक प्रकाशित हास्य पत्रिकाओं का एक दुर्लभ संग्रह मिला है। हम इन पत्रिकाओं का जीर्णोद्धार कर रहे हैं और जैसे ही ये तैयार होंगी इन्हें कार्टूनिस्टों और आधुनिक इतिहास के विद्वानों के अवलोकन के लिए रखकर हमें खुशी होगी।
1980 के दशक के अंत तक, एक नेता को छायाचित्र के बजाय हास्यचित्रों से ज्यादा पहचाना जाता था। यहां तक कि पुराने नेता अपने हास्य चित्रों का संग्रह किया करते थे और इन्हें अपने दफ्तर में लगाया करते थे। वे अपने हास्य चित्रों को स्वीकार करते थे क्योंकि वे लोकप्रिय कार्टूनों को जनता से सीधे जुड़ने का साधन मानते थे। मैंने हाल ही तक, अपनी दीवारों पर लक्ष्मण द्वारा बनाए गए अपने कार्टून लगाए हुए थे।
कुट्टी जैसे कार्टूनिस्ट ताजगीपूर्ण हास्य के साथ पैनी टिप्पणी करते थे तथा उन्होंने तथा उनके गुरु शंकर ने यही संस्कृति कार्टूनों की बाद की पीढ़ी को सौंपी।
बिना किसी को आहत किए व्यंग्य करना, विरुपण किए बिना हास्य चित्र बनाना, ब्रुश से वह बात कह देना जिसे लम्बे-लम्बे सम्पादकीय न कह पाएं—यही एक कार्टूनिस्ट की कला होती है। कार्टूनिस्ट हमारे सार्वजनिक जीवन का दर्पण है और यह बताने में हमारी मदद करता है कि राष्ट्र के रूप में खुद को देखने का मौका देता है। एक देश के तौर पर हमें नेहरू युग की ओर लौटना होगा, आलोचना का स्वागत करने की भावना पैदा करनी होगी, जहां अभिव्यक्ति स्वतंत्र हो, परंतु तथ्यों को पावन माना जाता है।
इंदिरा जी ने, नेहरू पर बनाए गए शंकर के कार्टूनों के संग्रह की अपनी प्रस्तावना में लिखा है, ‘‘कार्टून आधुनिक समाज के प्रबुद्ध जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। कुछ निंदा की के इरादे के बिना कार्टून बनाते हैं, कुछ मुखौटा हटाते हैं और समाज को आईना दिखाते हैं। थोड़े बहुत असम्मान के बिना कोई कार्टून नहीं बन सकता।’’
हमारे देश के आधुनिक सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में कुट्टी के योगदान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं अपनी बात समाप्त करता हूं। श्री कुट्टी एक ऐसे व्यक्ति थे जो केरल से आए और दिल्ली में रहते थे और बंगाली अखबारों के लिए कार्टून बनाते थे (जबकि उन्हें बंगाली नहीं आती थी), वह एक सर्वोत्कृष्ट भारतीय थे। उनका जीवन और कृतियां भाषायी और राज्यों की सीमा से नहीं बंधे हुए थे। मैं भारत की कार्टूनिस्ट बिरादरी से आग्रह करना चाहूंगा कि वह अपनी पसंदीदा कला में उत्कृष्ट कार्य करके उनकी स्मृति को जीवित रखें।
श्री कुट्टी मुख्यत: शंकर से प्रशिक्षण लेने के लिए 1941 में दिल्ली आए थे। लगभग 57 वर्ष तक उन्होंने प्रतिदिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर टिप्पणियां कीं और भारत के आधुनिक इतिहास की कुछ महत्त्वपूर्ण घटनाक्रमों को लेखबद्ध किया। कुट्टी ने अपने कामकाजी जीवन का अधिकतर हिस्सा दिल्ली में बिताया। एक अनुभवी कार्टूनिस्ट के रूप में,केन्द्रीय कक्ष का प्रवेश पत्र मिलने के कारण संसद में उनकी नियमित उपस्थिति रहती थी।
मुझे बताया गया है कि 1960 के दशक में स्वर्गीय कामराज जी ने मजाक में कुट्टी से पूछा कि प्रधानमंत्री के रूप में उनकी पसंद कौन हैं। कुट्टी ने उत्तर दिया, ‘‘मैं ऐसा प्रधानमंत्री चाहता हूं जिसका चित्र बनाना आसान हो।’’ और कुट्टी ने पंडित जी से लेकर मनमोहन सिंह जी तक प्रत्येक प्रधानमंत्री का सहजता से चित्र उकेरा।
मैं, अपने लम्बे सार्वजनिक जीवन में, कुट्टी के कार्टूनों का लगातार निशाना बनता रहा हूं, विशेषकर इसलिए क्योंकि वह आनंद बाजार पत्रिका और आजकल जैसे बंगाली अखबारों के लिए कार्टून बनाया करते थे। एक कार्टूनिस्ट का कार्य हास्य के माध्यम से महत्त्वपूर्ण सामाजिक संदेश देना होता है। हँसी लोगों के साथ-साथ राजनीतिज्ञों के लिए भी तनाव-मुक्ति का साधन है। कार्टून लोगों को यह याद दिलाता है कि शासक भी उन्हीं की तरह गलती करने वाला इन्सान है।
कार्टून हमें अंग्रेजों से विरासत के तौर पर मिले हैं। परंतु भारतीयों ने इन्हें बहुत पसंद किया। लंदन पंच पर की तर्ज पर हास्य पत्रिकाएं देश के अनेक हिस्सों में फली-फूलीं। यह अनुमान लगाया जाता है कि 19वीं शताब्दी के अंत तक कम से कम एक दर्जन भारतीय शहरों में 70 से अधिक पंच जैसी पत्रिकाएं और अखबार प्रकाशित होते थे। हमारे यहां उर्दू पंच, अवध पंच और फारसी पंच थी। मुझे विश्वास है कि यहां उपस्थित लोगों के लिए यह दिलचस्पी की बात होगी कि हमें अपने राष्ट्रपति भवन के पुस्तकालय में 1843 से 1927 तक प्रकाशित हास्य पत्रिकाओं का एक दुर्लभ संग्रह मिला है। हम इन पत्रिकाओं का जीर्णोद्धार कर रहे हैं और जैसे ही ये तैयार होंगी इन्हें कार्टूनिस्टों और आधुनिक इतिहास के विद्वानों के अवलोकन के लिए रखकर हमें खुशी होगी।
1980 के दशक के अंत तक, एक नेता को छायाचित्र के बजाय हास्यचित्रों से ज्यादा पहचाना जाता था। यहां तक कि पुराने नेता अपने हास्य चित्रों का संग्रह किया करते थे और इन्हें अपने दफ्तर में लगाया करते थे। वे अपने हास्य चित्रों को स्वीकार करते थे क्योंकि वे लोकप्रिय कार्टूनों को जनता से सीधे जुड़ने का साधन मानते थे। मैंने हाल ही तक, अपनी दीवारों पर लक्ष्मण द्वारा बनाए गए अपने कार्टून लगाए हुए थे।
कुट्टी जैसे कार्टूनिस्ट ताजगीपूर्ण हास्य के साथ पैनी टिप्पणी करते थे तथा उन्होंने तथा उनके गुरु शंकर ने यही संस्कृति कार्टूनों की बाद की पीढ़ी को सौंपी।
बिना किसी को आहत किए व्यंग्य करना, विरुपण किए बिना हास्य चित्र बनाना, ब्रुश से वह बात कह देना जिसे लम्बे-लम्बे सम्पादकीय न कह पाएं—यही एक कार्टूनिस्ट की कला होती है। कार्टूनिस्ट हमारे सार्वजनिक जीवन का दर्पण है और यह बताने में हमारी मदद करता है कि राष्ट्र के रूप में खुद को देखने का मौका देता है। एक देश के तौर पर हमें नेहरू युग की ओर लौटना होगा, आलोचना का स्वागत करने की भावना पैदा करनी होगी, जहां अभिव्यक्ति स्वतंत्र हो, परंतु तथ्यों को पावन माना जाता है।
इंदिरा जी ने, नेहरू पर बनाए गए शंकर के कार्टूनों के संग्रह की अपनी प्रस्तावना में लिखा है, ‘‘कार्टून आधुनिक समाज के प्रबुद्ध जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुके हैं। कुछ निंदा की के इरादे के बिना कार्टून बनाते हैं, कुछ मुखौटा हटाते हैं और समाज को आईना दिखाते हैं। थोड़े बहुत असम्मान के बिना कोई कार्टून नहीं बन सकता।’’
हमारे देश के आधुनिक सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास में कुट्टी के योगदान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए मैं अपनी बात समाप्त करता हूं। श्री कुट्टी एक ऐसे व्यक्ति थे जो केरल से आए और दिल्ली में रहते थे और बंगाली अखबारों के लिए कार्टून बनाते थे (जबकि उन्हें बंगाली नहीं आती थी), वह एक सर्वोत्कृष्ट भारतीय थे। उनका जीवन और कृतियां भाषायी और राज्यों की सीमा से नहीं बंधे हुए थे। मैं भारत की कार्टूनिस्ट बिरादरी से आग्रह करना चाहूंगा कि वह अपनी पसंदीदा कला में उत्कृष्ट कार्य करके उनकी स्मृति को जीवित रखें।