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उत्कल संगीत महाविद्यालय के स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

भुवनेश्वर, ओडिशा: 29.11.2014



1.मुझे उत्कल संगीत महाविद्यालय के स्वर्ण जयंती समारोह के उद्घाटन के लिए आज आपके बीच उपस्थित होकर प्रसन्नता हो रही है। महाविद्यालय की स्थापना1964में ओडिया कला और संस्कृति के उत्कट प्रेमी ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमंत्री स्वर्गीय बीजू पटनायक ने की थी।

2.मुझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि महाविद्यालय ओडिशी गायन,हिन्दुस्तानी गायन,ओडिशी नृत्य, ओडिशी पखावज, हिन्दुस्तानी वायलिन, बांसुरी और सितार जैसी तेरह विभिन्न विधाओं में उच्च माध्यमिक स्तर से स्नातकोत्तर स्तर तक संगीत,नृत्य और नाटक के क्षेत्र में शिक्षा प्रदान कर रहा है। यह महाविद्यालय अब उच्च माध्यमिक स्तर पर उच्च शिक्षा परिषद तथा स्नातक और स्नातकोत्तर स्तरों पर उत्कल संस्कृति विश्वविद्यालय के साथ संबद्ध है और यह अन्य भारतीय विश्वविद्यालयों के समान ही उपाधियां प्रदान कर रहा है।

3.मुझे इस बात की विशेष खुशी है कि यह महान संस्थान ओडिशा की कला एवं संस्कृति को लोकप्रिय बनाने और उसके प्रचार-प्रसार की अपनी परिकल्पना पर खरा उतर रहा है। इसकी स्थापना के समय से यहां स्वर्गीय सिंगरी श्याम सुंदर कार,स्वर्गीय श्री पंकज चरण दास, स्वर्गीय श्रीमती संयुक्ता पाणिग्रही,डॉ. विदुत कुमारी चौधरी तथा श्री उमेश चंद्र कार जैसे गुरुओं की नियुक्ति हुई जो अपने आप में जानी-मानी हस्तियां थी तथा जिन्होंने न केवल ओडिया कला एवं संस्कृति में पारंगतता प्राप्त की बल्कि इनके विश्वभर में प्रचार-प्रसार में योगदान दिया। इसलिए हसमें कोई आश्यचर्य नहीं कि इस महाविद्यालय से निकले हुए धीरेन्द्र नाथ मलिक, भवानी चरन बिश्वाल, सुब्रत पटनायक, इलियन सिटारिस्टी तथा स्वर्गीय गंगाधर प्रधान जैसे शिष्यों ने प्रदर्शन कलाओं के क्षेत्र में अपनी खुद की खास पहचान बनाई। मुझे इस महाविद्यालय द्वारा ओडिशा की कला और संस्कृति को जीवित रखने के लिए इसके प्रयासों की हार्दिक सराहना करता हूं।

देवियो और सज्जनो,

4.जैसा कि आपको ज्ञात है भारत विश्व की एक प्राचीनतम और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध सभ्यता है। इसलिए यह स्वाभाविक है कि प्रदर्शन कलाएं भारतीय अस्मिता और संस्कृति का एक अभिन्न हिस्सा हैं। वे सहस्राब्दियों से विकसित अद्भुत गहनता,समृद्धि और विविधता का प्रदर्शन करती हैं। पारंपरिक रूप से इन कलाओं का विकास उन प्रबुद्ध शासकों के संरक्षण में हुआ जिनमें से कई स्वयं संगीत और नृत्य के मर्मज्ञ थे। तथापि,कलाओं को राजाओं के संरक्षण की यह प्रणाली औपनिवेशिक काल के दौरान समाप्त हो गई।

5. 20वीं शताब्दी के आगमन तक, भारत का शास्त्रीय संगीत और नृत्य अनेक परिवर्तनों और पुन: आविष्कारों का साक्षी बना। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण यह था कि प्रदर्शन कलाओं के मर्मज्ञ अब पारंपरिक ऐतिहासिक दायरे से बाहर अपने लिए संरक्षक खोजने के प्रयास करने लगे थे। इसका सबसे बड़ा प्रभाव यह हुआ कि ये प्रदर्शन कलाएं औपनिवेशिक काल में इन कला रूपों के संरक्षक रहे पारंपरिक परिवारों और समुदायों से बाहर के कलाकारों और दर्शकों तक फैल गई। इन नए रुझानों के परिणामस्वरूप भारत द्वारा अपनी संस्कृति का इस तरह और इस पैमाने पर पुन: प्रस्तुतीकरण किया गया जैसा पहले कभी नहीं देखा गया।। ग्रामोफोन,रेडियो और तदनंतर सिनेमा की शुरुआत ने पूरे भारत में इन शास्त्रीय संगीतों और नृत्यों को और लोकप्रिय बना दिया।

6.स्वतंत्रता के बाद, भारत सरकार ने प्रदर्शन कलाओं का राजकीय वित्तपोषण आरंभ किया तथा इन कला रूपों के ज्ञान के प्रलेखन और प्रचार-प्रसार तथा इनके प्रशिक्षण और प्रदर्शन के लिए1950 के दशक में तीन राष्ट्रीय अकादमियां स्थापित की गईं। भातखंडे संगीत संस्थान,लखनऊ तथा उत्कल संगीत महाविद्यालय, भुवनेश्वर की स्थापना इस परंपरा की निरंतरता है जिसमें राज्य भारतीय कला,संगीत,नृत्य, नाटक तथा संस्कृति के विभिन्न रूपों और पहलुओं के लिए वित्तीय मदद देते हुए इनको बढ़ावा देते हैं तथा जिसमें यह विश्वास निहित है कि हमारी प्राचीन कलाएं हमारे अतीत से हमारी संबद्धता है तथा इस प्रकार हमारे वर्तमान चिंतन के लिए आधारशिला तथा भावी कार्यों के लिए मंच दोनों ही हैं।

मित्रो,

7.यह अत्यंत संतोष की बात है कि वर्षों के दौरान महाविद्यालय अपने द्वारा निर्धारित अपेक्षाओं पर खरा उतरा है। मुझे विश्वास है कि यह संस्थान तथा इसके विद्यार्थी प्रदर्शन कलाओं में उत्कृष्टता प्राप्त करते रहेंगे। मैं एक बार पुन: इस महाविद्यालय के स्वर्ण जयंती समारोह के अवसर पर आप सभी को बधाई देता हूं तथा आप के भावी प्रयासों के लिए शुभकामनाएं देता हूं।

 

धन्यवाद!

जयहिन्द!