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शिकागों में विश्वधर्म संसद में भाग लेने के लिए (1893) स्वामी विवेकानंद की मुंबई से पश्चिम की समुद्री यात्रा की 120वीं वर्षगांठ के अवसर पर भारत के राष्ट्रपति, श्री प्रणब मुखर्जी का अभिभाषण

दीक्षांत सभागार, मुंबई विश्वविद्यालय, मुंबई : 31.05.2013


1. मुझे, आज की दोपहर यहां उपस्थित होकर अत्यंत प्रसन्नता हो रही है।

2. महान व्यक्तियों के जीवन में कुछ यात्राओं की परिणति उनके लिए और उनके लोगों के लिए रूपांतरकारी होती है। 120 वर्ष पूर्व स्वामी विवेकानंद की समुद्री यात्रा भी एक ऐसी ही यात्रा थी।

3. स्वामी जी के शिकागो व्याख्यान, मानव जाति के इतिहास में अंतरधर्म सौहार्द्र तथा वैश्विक भाईचारे की मानतम उद्घोषणाएं बनकर सामने आई। उनकी प्रासंगिकता आज के ऐसे विश्व में कई गुना बढ़ गई है जो कहीं अधिक परस्पर जुड़ा हुआ है तथा अधिक परस्पर निर्भर है। विभिन्न धर्मों और समुदायों के बीच सौहार्दपूर्ण सह-अस्तित्व, आज एक केवल आदर्श नहीं रह गया है बल्कि एक अनिवार्य आवश्यकता हो गया है। 19 सितंबर 1893 को शिकागो में अपने पहले व्याख्यान में स्वामी जी ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण संदेश दिया था, जिसे मानव जाति भूलने का खतरा नहीं उठा सकती। मैं उनके व्याख्यान में से निम्न शब्दों का उल्लेख करना चाहूंगा:

सांप्रदायिकता, धर्मांधता और उसका भयावह प्रतिफल कट्टरवाद, इस सुंदर पृथ्वी पर बहुत समय से मौजूद हैं। उन्होंने पृथ्वी को हिंसा दी है, इसे बारंबार इन्सान के खून से रंगा है, सभ्यता को नष्ट किया है तथा संपूर्ण देशों को हताशा में डुबोया है। यदि ये भयावह राक्षस न होते तो मानव समाज उससे कहीं अधिक उन्नत होता जितना यह आज है।

4. देवियो और सज्जनो, उन दिनों, भारत के बारे में पश्चिमी दुनिया की समझ, इस दूर-दराज के देश तथा इसके लोगों के बारे में गलतफहमी से भरी हुई थी। इसलिए, जब स्वामी विवेकानंद के शक्तिशाली विचारों और उनके पावन व्यक्तित्व ने ऐसे बहुत से प्रभावशाली चिंतकों के मस्तिष्कों और दिलों को जीता, जो उनके संपर्क में आए थे तो यह रूपांतरकारी क्षण था।

5. स्वामी जी ने पश्चिम समाज के सकारात्मक पहलुओं और उपलब्धियों की बेहिचक प्रशंसा की और अपनी बात को रखते हुए हठधर्मिता नहीं दिखाई, इसलिए वह भारत के लिए समझ तथा सद्भावना का एक सशक्त नया पुल बनाने में सफल रहे। ऐसा करके, उन्होंने हमारे लोगों के बीच, आपसी स्वीकार्यता पर आधारित एक नया विमर्श शुरू किया।

6. फ्रांसीसी नोबेल विजेता, राम्यो रोलां ने अपनी पुस्तक ‘द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल’ में लिखा है: ‘‘संतुलन’ और ‘संश्लेषण’, इन दो शब्दों में विवेकानंद की रचनात्मक प्रतिभा का समाहार किया जा सकता है... वह संपूर्ण मानवीय ऊर्जा की समरसता की साकार मूर्ति थे।’’

7. आज जब हम स्वामी विवेकानंद को श्रद्धांजलि दे रहे हैं, ऐसे मौके पर उनकी परिकल्पना और वास्तव में उनके अपने उदाहरण से हमें उन बातों का स्मरण होना चाहिए, जिन्हें हमें तत्काल तथा नियमित रूप से अकेले, और आधुनिक भारत के नागरिक होने के नाते, मिलजुलकर करने की जरूरत है। वह कौन सी प्राथमिकताएं हैं जिन पर हम कार्य आरंभ कर सकते हैं?

8. सबसे पहले, आधुनिक भारत के लिए स्वामी विवेकानंद की परिकल्पना में सामाजिक सुधार प्रमुख तत्व है। स्वामी जी जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर भेदभाव, दमन तथा अन्याय के सख्त खिलाफ थे। उनके अनुसार, वेदांत के उच्च विचारों तथा हमारे समाज में मौजूद मानवीय स्थिति के प्रति शर्मनाक उदासीनता के बीच असंतुलन की वास्तविकता पूरी तरह अस्वीकार्य है। महाराष्ट्र ने हमारे देश के कई महानतम् समाज सुधारकों को जन्म दिया। मैं आज इस बात को दोहराना चाहूंगा कि भले ही हमारे समाज के इन नेताओं के रास्ते बाहरी तौर पर अलग-अलग दिखाई देते हों परंतु उनके लक्ष्य मूलत: एक ही हैं। स्वामी जी की 150वीं जन्म जयंती का समारोह, सामाजिक सुधार के लिए कोशिश करने वाले, विभिन्न तबकों के बीच रचनात्मक विमर्श तथा सहयोगत्मक कार्यवाही का एक अवसर होना चाहिए।

9. दूसरे, जैसा कि स्वामी जी का मानना था, हमारी शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने तथा उसमें प्रसार करने की आज तात्कालिक जरूरत है। मुझे विश्वास है कि हमारे बहुत से शानदार विश्वविद्यालय खुद को फिर से रूपांतरित करके अपनी पुरानी कीर्ति को पुन: पा सकते हैं। उन्हें खुद को अद्यतन करने की और अपनी पाठ्यचर्या और पद्धतियों को अधिक प्रासंगिक तथा परिणामोन्मुख बनाने की सख्त जरूरत है। इसे, सुधार की व्यापक तथा समयबद्ध योजना द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

10. इसके अलावा, सरकार के इन प्रयासों में कॉरपोरेट क्षेत्र द्वारा, विकास तथा सामाजिक कल्याण के कार्यों में अधिक संसाधनों को प्रदान करने का वायदा करके सहयोग दिया जा सकता है।

11. तथापि, हमारा यह मानना है कि हमारा सबसे पहला लक्ष्य नैतिकता, आचार तथा सामाजिक आचरण की अपनी गौरवशाली परंपराओं का पुनरुत्थान होना चाहिए। लगता है कि अपने-अपने अल्पकालीन लक्ष्यों की प्राप्ति के दौरान, हम अच्छे और बुरे की अपनी समझ खोते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप, न केवल वृहत्तर जन-कल्याण को तिलांजलि दी जा रही है बल्कि सफलता तथा खुशहाली की निजी तलाश से क्षणभंगुर, काल्पनिक तथा प्राय: नकारात्मक परिणाम प्राप्त होते हैं।

12. इसलिए, स्वामी विवेकानंद को स्मरण करना, भारत के राष्ट्रीय चरित्र का पुनर्निमाण करने के उनके आह्वान को स्मरण करना है। खासकर, आज उनकी युगांतरकारी समुद्री यात्रा को स्मरण करना, भारत के युवाओं को साहसी, जांबाज तथा मजबूत तथा सबसे पहले अपने चरित्र तथा आचार में अविचल सशक्तता लाने के उनके आह्वान को स्मरण करना है।

13. मेरा दृढ़ विश्वास है कि भारत की जनता स्वामी विवेकानंद के उपदेशों को पालन करके विश्व को राह दिखाएगी। हम सदैव सहिष्णुता तथा सभी धर्मों के प्रति आदर पर आधारित सांप्रदायिक शांति और सौहार्द का प्रतीक रहे हैं। हमें इसको बनाए रखते हुए उदाहरण प्रस्तुत करना है।

14. देवियो और सज्जनो, इन्हीं शब्दों के साथ मैं रामकृष्ण मिशन मुंबई को इस स्मृति कार्यक्रम के आयोजन के लिए तथा आब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन मुंबई को इस मौके पर दो पुस्तकें प्रकाशित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूं।

15. हम सभी स्वामी विवेकानंद के विचारों और उनके शब्दों से प्रेरणा प्राप्त करें तथा अपने दैनिक जीवन में उनके आदर्शों को अपनाने का ईमानदारी से प्रयास करें।

धन्यवाद,

जय हिंद!